Friday, July 26, 2013

फिर कहीं किसी रोज

 

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कभी जाती थी आ जाने के लिए तो कभी आती हूँ जाने के लिए ... यही तो जीवन है .. जिंदगी की रवायत है, रवानगी इसी में है ... छिपी है जिसमें आने की ख़ुशी तो जाने का गम भी है ... बेसाख्ता मुस्कुरा जाओ गर मेरे आने पर कभी तुम तो हिज्र की खलिश को भी सहने का दम भरना, ....मेरी रुखसती की इक स्याह रात को सह लेना इस कदर तुम .. कि न माथे पर शिकन लाना न आँखों में हो नमी .. . अब्र के घूँघट में मुस्कुराएगा महताब किसी रोज फूटेगी चाँदनी झिलमिल बरस बरस और आफ़ताब खिल उठेगा ले कर इक नयी सुबह . मुस्कुराएंगे गुल नए, कि महकेगी कली कली .. वक्त अपने दामन में ले आएगा खुशिया नयी नयी ........ मेरे जाने का गम न करना मैं आउंगी फिर कहीं किसी रोज ...
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और कानों में इक गीत लिखते लिखते बजने लगे ... रहे ना रहे हम महका करेंगे बन के कली, बन के सबा, बाग-ए-वफ़ा में  ~nutan~

Tuesday, July 16, 2013

समुन्दर किनारे, एक अनजाना


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नारियल के पेड़ के नीचे

समुद्री रेत पर

घोंघों संग

बीन रही थी कुछ शंख आकार

और कभी कभी ले लेती थी कोई क्लिक

जब  

सूरज की रौशनी मे

सागर सी अथाह भारी आवाज में

वह मछुवारा बोला

न खींचो तस्वीर मेरी

आपकी सभी तस्वीरें काली पड़ जाएंगी|……..

हँस पड़ी थी मैं पर कुछ न बोला

बस मुश्किल से दो पल, चार कदम चले थे साथ

और तेज क़दमों से मैंने रुख बदल लिया था  

दूर दूर मीलों दूर

पहाड़ों की ओर अपने गाँव को……

वर्षों पहले 

छोड़ आई थी सब कुछ उस तट पर

उस अजनबी काले आदमी को, वो नारियल के पेड़

वो रेत वो समुद्र, नाविक और नौकाएं ……

पर साथ आ गयी थी मेरे, अनजाने में ही

उन सब चीजों की यादें और एक निश्छल हँसी

किन्तु एक ऐसी टीस

जिसने चुपके से

इन सबके बीच

अपनी जगह बना ली थी

जी रही है मेरे भीतर  .................

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मानवीय भावनाएं चमड़ी के रंग से कहीं ऊपर होती है|  ---- ~nutan~


 

Wednesday, July 10, 2013

खुद से दूर - डॉ नूतन गैरोला


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तुम यकीन नहीं करोगे

सच

मेरी दौड है

खुद से

मैं खुद से जीत जाना चाहती हूँ

मैं यकीनन अपनी पहचान बचाना चाहती हूँ

तुम हो कि मेरे खुद में अतिक्रमण

कर चुके हो

व्याप्त हो चुके हो मुझमे

जैसे कोई दैत्य किसी देह में

आत्मा को जकड कर ………

पर

अभी चेतन्य है मन

और उसे मेरा यह खुद का रूप ग्राह्य भी नहीं

इसलिए वह दौड पड़ा है खुद से दूर

जैसे खुशियों से लिपटना चाहता हो पर

भाग रहा हो दुखों की ओर

और वह नदी

जो बलखाती तुम्हारे गाँव की ओर जा रही है

नहीं चाहती है पलट जाना

मुहाने की ओर

पर देखो

उसकी अविरल धार

रुकते रुकते सूख चुकी

क्यूंकि किसी ने भी नहीं चाहां

नदी का रुख मुड़े

तुम्हारे गाँव की ओर ……..

और

उसे बांधा गया है

बांधों में

पहाड़ी की दुसरी छोर|

जानती हूँ

अगर तुम नदी से मिलने आओगे

तो तोड़ दिए जायेंगे किनारे

दीवारे

सैलाबों मे ढाल दी जायेगी

नदी,

नदी नहीं रहेगी 

मिटा दी जायेगी|

……………………………………~nutan~  10 july 2013 .. 15:01

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