Thursday, January 12, 2012

तुम आई जब से मेरे आँगन में - डॉ नूतन गैरोला


माँ का मन बेटी के लिए जाने कितनी ही दुवाएं करता है, उसे मिल जाती है एक नन्ही खुशी झोली में, यह खुशी दुनियाँ जहां की खुशियाँ बन,   बन जाता है उसका अपना खुशियों का आसमान  | माँ की दुलारी लाडली जब थोड़ी बड़ी होने लगती है तो घर भर में खुशियों की लहर बन कर बहने लगती, माँ पिता और घर में सबका ख्याल रखने लगती है और माँ की वह नन्हीं बेटी माँ की सहेली बन जाती है, उसके सुख दुःख की साथी|

                                               एक प्रार्थना थी

              नन्ही परी तुम फूलों पर रख पाँव आना मेरे घर
              रेशमी किरणें चाँद की संग साथ लाना मेरे घर ...

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और वह परी मेरे घर आ गयी, नन्ही गुड़िया  जैसी   - बेटी के रूप में - आज उसका जन्मदिन है|  यह खुशियां मैं आप सब के साथ साझा कर रही हूँ..  

                                          
                                        

                                                      
   
अभी तुम नन्ही कली मासूम नाजुक सी
धरती पर उतरी इक भोली परी सी
अभी जानना है तुम्हें धरती समुन्दर जहां को
और छूना है आसमां को
माँ पिता के नाम और सम्मान को बढ़ाना |
यशस्वी बनो तुम विजयी बनो तुम
तन मन स्वस्थ बनाना
दुवा है मेरी प्रिया तुम सबकी प्रिय रहो
सुख की ज्योति संग प्रकाशमान रहो  
दीर्घायु रहो तन्दुरस्त रहो
मुश्किलों में भी मार्ग प्रशस्त करो|
अपनों का अविरल प्रेम पाना
बिटिया रानी तुम्हारी झलक को देखने को हों व्याकुल
तुम इतना यश नाम पाना |
सुख समृद्धि स्वास्थ 
और हो अपनों का साथ 
तुम जीवन में सच्ची खुशियाँ पाना |

डॉ नूतन गैरोला
यह कविता पिछले साल भाई जोगेन्द्र सिंह जोगी जी को बेटी झलक के जन्मदिन पर दी थी और वंदना जी की बेटी भामिनी के जन्मदिन पर  | आज यहाँ ब्लॉग में पोस्ट की है |




माँ का मन कहता है बेटी के लिए


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  मैं और मेरी बेटी सौम्या / प्रिया

तुम आई जब से मेरे आँगन में



मेरे आँगन में रोज जब चिड़िया चहकती थी
मैं बस सोचा करती थी
ये बोलती हैं क्या?
तुम आई जब से मेरे आँगन में
समझ आने लगा है मुझे
चिड़ियों की चहक में होता है क्या …

बचपन मेरा बीता
दौड़ते भागते रंगबिरंगी तितलियों के पीछे
तुम आई जब से मेरे आँगन में
जाना है मैंने
बचपन की वह सुनहली मासूम चंचल तितली
दौड़ भाग उछल रही है इर्द-गिर्द मेरे
पीछे पड़ी रहती हर वक़्त ऐसे कि
मैं उसके लिए रसभरा फूल हो गयी हूँ जैसे 
मेरी गोद में बैठ मेरे साथ वो कितना खुश होती है
देख ये मैं भी तृप्त होती हूँ | …….
=========================

उसके लिए -
फूलों से खिलती है तेरी हंसी
तेरे होने से महकता है सारा घर
मासूम आँखों में अटके जब भी आंसू के दो बूँद
दिल मेरा दुःख का दरिया होता है ..
तुम मेरे लिए सुबह की धूप हो
तुम दोपहर की धूप में छाया हो
तुम रात की खिलती चांदनी हो
तुम तम को मिटाती आभा हो
तुम मरु पर बरसता पावस हो|
तुम पतझड़ में खिलता बसंत हो
 तुम चन्दन में बसी महक सी हो
तुम मेरी प्यारी गुडिया हो ||
आ तुझे मैं काला टीका लगा दूं
दुनियाँ जहां की नजर से बचा लूँ|
|
……. डॉ नूतन गैरोला १२ / जनवरी /२०११ 

                                                  मुझे मिली परी
                                     …पिछले साल की पोस्ट .. ११-०१-२०१२                                                 

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                                                            डॉ नूतन गैरोला
                सभी ब्लॉग मित्रों को नववर्ष पर शुभकामनाएं और  शुभदिवस

Sunday, January 8, 2012

पुनर्मिलन .. डॉ नूतन गैरोला

 

देखो उस खिडकी से बाहर / बहुत सुन्दर फूल खिलें है / ताकीद किया है मैंने ताकि तुम गलती से भी ना देखो उस ओर / वहाँ खिडकी से बाहर दिखेगा तुम्हें वह माली भी जो कर रहा है बगीचे की हिफाजत / क्या पता उसकी नजर हो बुरी..

तुम कर रही थी उस रोज / अपनी जिस प्रिय मित्र की बात/ सुना है वो हद स्वाभिमानी है /करती नहीं है मुझसे बात / तुम उससे मत जोड़ कर रखना दोस्ती / जिससे बोलूं बस उससे अभिवादन भर रिश्ता रखना / देखो तुम हो बहुत भोली इसलिए मैं चयन करूँगा कि तुम्हें किसको बनाना होगा मित्र और होंगे कौन अमित्र …

देखा मैंने कि कह रहे थे लोग, तुम बहुत खूबसूरत हो/  तुमने कभी शीशे में भी देखा है अपना चेहरा / कितना झूठ बोलते हैं लोग ये है मैंने जाना/ तुम उनकी बातों में ना आना/ और जानो कि वैसे भी मुझे सुंदरता से ना कुछ लेना या देना / और अगर देखनी हो सुंदरता तो आइना मत देखो, देखो मेरी ओर, मेरी आँखों की ओर ..

आज कल तुम बातें करती हो भ्रष्टाचार के बारे में/ दुनियाँ में फ़ैली दुःख बीमारी की / इस से तुम्हें क्या लेना देना / इन्होने तुम्हें वैसे भी क्या देना / देखो मुझे ही रहती है फिकर तुम्हारी / देखना हो तो देखो मेरा दुःख मेरी बातें / मेरा दुःख तुम्हारे लिए होना चाहिए दुनियाँ का सबसे बड़ा दुःख, सबसे जरूरी बात ..

काला रंग तुम्हें बिल्कुल भाता नहीं / हाट में यह काली साड़ी सबसे सस्ती मिली/  पहन लेना इसे और कहना मुझे बेहद पसंद है क्यूंकि नापसंद सुनना मुझे भाता नहीं / और सुना है आज तक वह दिल पर पत्थर रख कर कहती है कि यह साड़ी मुझे बहुत पसंद है ..


वह तुम पढ़ रही हो कौन सी किताब / अडोल्फ हिटलर की जीवनी / यह भी कोई पढ़ने की चीज है / पढ़ना हो तो पढ़ो मेरा चेहरा और समझो करता हूँ मैं तुमसे कितना प्यार / और जानो कि जैसा मैं कहूँ तुम्हें वैसा करना होगा / जैसा मैं चाहूं तुम्हें वैसा बन कर रहना होगा / क्योंकि तुम्हारे जीवन की ( मौत की) चाभी है मेरे हाथ / तुम अभी तक महफूज़ हो जिन्दा हो अभी तक, क्या ये कुछ कम नहीं, तो जान लो कि करता हूँ तुम्हें कितना प्यार ..

तब उस स्त्री ने किताब तहखाने की अलमारी में बंद कर ली| और उस आदमी की आज्ञा का पालन करती हुवी अपना होना ना होना एक किनारे रख उसकी आँखों के समंदर से गुजरने वाली राहों में अपने अस्तित्व को खोती रही | वह जान चुकी थी कि यह मासूम सा लंबी काया वाला क्लीन सेव्ड आदमी ही
  “आज का अडोल्फ हिटलर है और वह तब्दील हो चुकी है इवा ब्राउन में|”
 

डॉ नूतन गैरोला .. ०८/०१/२०११ … ००:३३
 
 


Friday, January 6, 2012

मेरा प्रेम मेरी चाय - डॉ नूतन गैरोला

                                                                                                                                                                    
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तू कड़क

तू है मीठी

अलसाई है हर सुबह

बिन तेरे ..

बिन तेरे

एक प्यास अनबुझी सी

हर  शाम अधूरी सी ..

 

एक तलब

लब पे आ के जो बुझाती है

उसे जी लेते है चुस्की संग..

चुस्की संग

होती हैं शामें  तरोताजा मदमस्त सी

और

रातें उन्नींदीं सी ..

 

 

 

                                                        डॉ नूतन गैरोला

 

 

  • प्रकृति से तो सभी प्रेम करते हैं पर व्यक्तिक तौर पर प्रेम हम किस से करते है - व्यक्ति विशेष, वस्तु विशेष, आदत विशेष, शौक विशेष से या किसी खाद्य सामग्री या पेय से |   और चाय के प्रति मेरा अगाध प्रेम है … वैसे भी हम पहाड़ियों को तो ठण्ड में राहत देने के लिए चाय एक शौक ही नहीं, एक आदत बन जाती है| और जब बाहर ठण्ड हो, कोहरा छाया हो या फिर हम ट्रेकिंग पर पहाड़ियों में घूम रहे हो, तो चाय से निकलती भाप ठण्ड से लाल पड गयी नाक को राहत देती है … स्टील के ग्लास में रखी गरमागरम चाय हाथों को गरम करती है और चुस्कीयों के साथ शटर शटर या सुड़ुक सुड़ुक करके चाय पीने से एक तृप्ति का अहसास भरती है   और फिर हाआआ करके गर्म हवा बाहर निकलना - अंदर की थकान को भी बाहर निकालता है ..और ठण्ड में उठती भाप और मुंह से निकले गर्म वाष्प के लच्छे गर्मी को बढ़ाते हैं ( मैं अत्यधिक जाड़े वाले मौसम की बात कर रही हूँ)  और फिर गरमागरम पकौड़ी और जलेबी हो साथ तो क्या बात .. और  गर्म चाय  गले से नीचे उतरी नहीं की ताजगी और उर्जा से भर देती है..वैसे तहजीब तो बिना आवाज के चाय पीने की है पर चाय का लुत्फ़ लेना हो तो खूब आवाज कर चाय पीजिए| अब क्या कहूँ चाय के बारे में जिसके बिना अधूरा अधूरा सा लगता है….

 

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     रुद्रनाथ के रास्ते में काफी ऊंचाई में यायावरों के लिए चाय और सुरक्षित जगह -

 

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           डॉ प्रकाश भट्ट रुद्र्नात की ट्रेकिंग के दौरान कडाके की ठण्ड में चूल्हें में बनी चाय का आनंद लेते हुए

        

  • चाय का शौक और चाय की तलब इतनी ज्यादा और इतनी आम  है कि रेलवे स्टेशन की पहचान भी चाय वाले की आवाज से होती है … चाय है चाय है या चाय गरम चाय गरम … आवाज कितनी भी कड़क हो ..मुसाफिर की थकान चाय के साथ उतर जाती है , गली मोहल्ला, नुक्कड़, ऑफिस, बाजार, भीड़ वाली सड़क हो सुनसान सड़क या पहाड़ में ट्रेकिंग करते हुवे, जहां वीरान है दूर तक किसी भी घर/ झोपडी की उम्मीद ना हो वहाँ भी चाय की दुकान मिल जाती है… पहाड़ो में बहुत ऊंचाई में जहां पेड़ पौधे नहीं होते वहाँ भी घास के मैदानों में जिसे लोकल भाषा में “बुग्याल” कहते है भैस पालने वाले गुज्जर होते है, ताजा और गाढ़ा  दूध मिलता है, ऐसे में ट्रेकिंग करने वालों को जिन्हें उर्जा की बहुत जरूरत होती है, ऐसी दूध की चाय ताकत से भर देती है ..पहाड़ के कई गीतों में चाय का जिक्र होता है|

 

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 मैं अपनी सहेली के साथ एयरपोर्ट में चाय का आनंद लेते हुवे ( हालाँकि वह कोल्ड ड्रिंक ले रही है)            

  • दूध वाली चाय, काली चाय, लेमन टी, ग्रीन लीव टी, हर्बल टी, इंस्टेंट टी,व्हाइट टी   .. जाने चाय किस किस रूप में हमारे सामने आती है…ऊपर से आंच पर पकी पूरी चाय या मिक्स करने वाली चाय जिसमें दूध चीनी बाद में मिलानी पड़ती है. या फिर मशीन की चाय या स्टीम्ड टी …पर मुझे तो चाय आंच में पकी ही अच्छी लगती है जो पूरी तरह से तैयार हो …कहीं बाहर जाना पड़ता है तो मैं अपनी पसंदीदा चाय को मिस करती हूँ और पैकेट की चाय पीनी पड़ती है मजबूरीवश

 

 

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                  सिंगापुर में यह चाय तो बिल्कुल ही पसंद नहीं आई वैसे ही छोड़ दी

 

  • जायका और गुणवत्ता बढ़ाने के लिए बाज़ार में चाय मसाला भी मिलता है| घर में चाय का जायका बढ़ाने के लिए तुलसी , छोटी इलायची मिलाया जाय तो क्या कहने .. कई लोग लॉन्ग की बहुत ही छोटी मात्रा मिलाते हैं … बरसात और जाड़ों में अदरख और काली मिर्च भी मिली हो तो गुणकारी ही है|   
  • फिर कोई मेहमानवाजी हो, गोल मेज बैठक हो, सलाह मशविरा हो, मित्र से मुलाकात हो, चर्चा हो, किसी की इंतजारी हो .. चाय दम भरती है ..

 

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               अपनी बचपन की सहपाठी के साथ चाय का आनंद( घर में एक मुलाकात के दौरान)

 

  • विद्यार्थी भी तो खुद को चुस्तदुरुस्त तरोताजा रखने के लिए चाय का सेवन करते हैं ..और चाय नींद दूर भगाती है ( इस सन्दर्भ में मुझे मेडिकल कोलेज का एक प्रसंग भी याद आ रहा है - जिसे मैं नीचे आगे शेयर करुँगी)
  • देर रात पढ़ना हो तो चाय का सहारा साथ देता है.. किसी रचना को अंजाम देना हो तो चाय का साथ …
  • अब तो उत्तराखंड में भी चाय के काफी बागान है उत्तरांचल टी भी बहुत जायकेदार है, दार्जलिंग, असम तो चाय के उद्पादन में अग्रणी रहे|  ऊटी में भी चाय का अच्छा उद्पादन देखा है ..

 

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                                  ऊटी के चाय बगान में मेरी बेटी और मेरे पति 
                        
         जब चाय बनाना एक ड्यूटी था

   कैसे दिन थे वो ..मेडिकल कॉलेज में प्रथम वर्ष .. रेगिंग बहुत हुआ करती थी .. और हम  बेचारे पहले साल में जो पदार्पण किया कि सर पर ओले गिरने लगे .. एक तो नजर जमीन पर और ठुड्डी छाती से सटी होनी चाहिए  जिससे गर्दन के तो मारे दर्द के बुरे हाल हो जाते थे ..तिस पर सीनियर को एक नजर पहचान भर के लिए भी नहीं देख सकते थे … उनकी पहचान या तो उनकी आवाज होती थी या उनके जूते या पैर| उनसे पूछना उनका परिचय तो - आ बैल मुझे मार जैसी स्तिथि हो जाती थी तो  उन्हें सिर्फ पैरों जूतों और आवाज से पहचानना पड़ता था .. और किसी भी कार्य के लिए हम मग्घे ( मेडिकल भाषा में मग्घे का मतलब बेवकूफ)   बालों में लगे टपकते तेल के साथ ( जो कि अनिवार्यता थी प्रथम वर्ष की छात्रों के लिए कि उनके सर के बाल कस कर बंधे हों और तेल से नहाये हों, पूरा मुह भी तेल तेल हुवा रहता था व सर नीचे और घुटनों से नीचे तक झूलता हुवा एप्रिन)… तो क्या कह रही थी -- हां बता रही थी कि अगर किसी कार्य के लिए  प्रथम वर्ष का छात्रा  कमरे से बाहर निकली नहीं कि सीनियर के हत्थे चढ़ जाती थी .. अगर रेगिंग नहीं हुवी तो गनीमत फिर भी स्नानागार तक या मेस तक जाते जाते कई सीनियर लड़कियों  के साथ उनके कार्य निबटाने का अनुबंध हो जाता था ( मन से नहीं भय से और रेगिंग की आवश्यकता की वजह से) ..अनुबंध में तीन काम खास होते थे १) चाय/ कोफी बनाना २ ) बाजार जा कर उनके लिए परचेसिंग करना ३) नोट्स कॉपी करना ४) रेगिंग के लिए तैयार ५) अन्य कोई भी काम 
           कोई सीनियर कहती ए लड़की कहाँ से आयी है तू और किस कमरे में रहती है .. हम अपना परिचय उनको बताते - वो भी मेडिकल भाषा में - फिर वो कहती आज रात डेढ बजे मेरे कमरे में चाय बनाने आ जाना … जी हाँ सर हिलाना ..और आगे बढ़ना कि दूसरी पकड़ लेती फिर वही अपना परिचय कि …मैं सड़ी गली चमन नूतन चमन अपने माता पिता की सड़ीगली संतान अपने सड़े गले शहर से ..जमात पास कर के आपके पवित्र पावन शहर कानपुर में  मिया बीबी बच्चों सहित अपना घर बसाने आई हूँ .. वह भी एक खास अंदाज में उड़ते हुवे उन्हें सलाम बजाते हुए | फिर वही हुक्मनामा कॉफी बनाने आ जाना रात  २ बजे .. जी कह कर सर हिलाना ..अपने मस्तष्क की डायरी में नोट कर लेना कि कैसी आवाज थी कौन सीनियर थी कहाँ कहाँ कमरा होगा कितने बजे का समय मिला.. इसी पशोपेश में होते की फिर कड़क आवाज और वही हुक्मनामा चाय बना देना ३ बजे आ कर .. जी हाँ … आगे बड़े की फिर एक सीनियर ने पकड लिया .. चल तू मेरे कमरे में कभी नहीं आई आज मेरे कमरे में डेड बजे चाय बना देना ..तब बेचारी प्रथम वर्ष की छात्र कहती कि डेड बजे तो मुझे पहले ही “अ जी” ने बुलाया है … तो डाँट पड़ जाती ज्यादा होशियारी मत बघार जो कहा गया वही करो .. और जब तक मेस या
स्नानागार पहुचते झोली में चाय या कॉफी बनाने के बीसियों अनुबंध … अब तो सारी रात आँखों में गुजर जायेगी कल सुबह खुद बिना पढ़े कॉलेज जायेंगे और प्रोफ़ेसर की डाँट खायेंगे  .. चलो ये ही सही कम से कम रात भर काम करेंगे तो रेगिंग से तो बच जायेंगे लेकिन यह भी तो रेगिंग ही थी … मेस में या बाथरूम में साथ की सहेली मिलती उस से पूछ कर कन्फर्म करते कि किस कमरे में कौन सी सीनियर है ..वो झट से एक पर्ची निकालती जिसमे सीनियर्स के कमरा नंबर उनकी विशेषताएं लिखी रहती और यह भी कि वह कितनी खतरनाक होंगी | वापसी में भी वही सिलसिला  और गलती से जब कहा की आज तो फुर्सत नहीं होगी रात भर में कई सीनियर ने चाय बनाने के लिए कहा तो फिर तो हल्ला मच जाता कि बहुत बकैत है यह जूनियर …चलो कमरा नंबर ५ में …वहाँ पहुँचते तो वहाँ अपने जैसे किसी एक को ना कहने वाली जूनियरों की भीड़ मिल जाती जिनकी अच्छी खासी रेगिंग कई सीनियर मिल ले रही होती.. बस तब तो डाँट खाते रहते ..पैर खड़े खड़े थक जाते और उलजलूल करतब करने को कहा जाता .. फिर घडी में नजर डेड बज गया ..उन्होंने चाय के लिए कहा था और उन्होंने डेड बजे काफी के लिए …जैसे तैसे कहते कि हमें चाय/ काफी  बनाने के लिए बुलाया है ..पक्का करने के लिए एक जूनियर को भेजा जाता और कन्फर्म होने  पर उस कमरे की कैद से निकल पाते लेकिन स्तिथि वही कि आसमान से गिरे खजूर पे अटके… अब ब जी की चाय बनानी है और र जी की कॉफी लेकिन ब जी तो दूसरे फ्लोर में रहती है वो भी नए खंड में ..जबकि र जी तो पुराने खंड में दूसरे हिस्से में तीसरे फ्लोर में रहती हैं … बस दौड भाग शुरू …बी जी त्योरी चढ़ा कर कहती है देर हो गयी उनके चाय का हीटर में पानी रखा चाय पत्ती डाली   और दौड़े ओल्ड ब्लोक की और ..र जी खूंखार हो राखी हैं ..देर कर दी ..चलो अब माफ नहीं करुँगी.. कॉफी इतनी घोटो की सफ़ेद हो जाए ..लेकिन शोर नहीं मचना चाहिए चम्मच का .. पढाई में डिस्टर्ब नहीं करना … कमरे से बाहर फेंटो  कॉफी .. और कमरे से बाहर निकलना सही रहता .. मौका मिल जाता  फिर दौड कर ब जी की चाय बनाने और र जी की कॉफी फेटते हुवे .. बी जी चिल्लाई चम्मच कप का शोर नहीं .. तो हाथ रोक दिए ..चाय बनायीं ..उनको चाय छान कर दी उनके मेज पर ..उन्होंने किताब से नजर नहीं हटाई ..फिर उनका दरवाजा उड़का कर र जी की और भागी ..कॉफी अभी सफ़ेद नहीं हुवी थी ..उचित जगह देख कर रुकी तेज तेज हाथों से कॉफी फेंटी और दौडी उनके कमरे की ओर..जल्दी से दूध चढ़ाया ….और बस प्रथम वर्ष में यह में यह भागमभाग ही रहा करती थी…
           कभी सीनियर्स की चाय, कभी कॉफी, कभी नोट्स लिखते कभी उनके लिए परचेसिंग करते मेडिकल कॉलेज का प्रथम वर्ष इतनी जल्दी बीत गया कि  मालूम ही नहीं पड़ा लगा  कि साल इतना छोटा क्यों होता है, सारी रात जागरण होता था  - आज लगता है कितने हसीन थे वो दिन 

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