Wednesday, December 26, 2012

शायद स्तिथि बदल जाए, संग्राम का बिगुल बजा है |

यह मामला दिल्ली का ही नहीं, यह मामला सम्पूर्ण देश का है| ………यह मामला महज आदिवासी, शहरी, ग्रामीण, शिक्षित अशिक्षित, गरीब या पैसे वाली नारी या किसी धर्म और जातिवर्ग का नहीं, यह मामला संपूर्ण नारी जाति का है | ………… ……………. यह मामला सिर्फ नारी से ही नहीं जुड़ा है यह हर पुरुष से जुडी उसकी स्त्री का है | ....…….. और यह स्त्री माँ, बहन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका या किसी भी रिश्ते के रूप में हो सकती है .……..

काश कि समाज में कोई ऐसी जगह होती जहाँ नारी सुरक्षित होती ...उसके लिए तो वह माँ की कोख भी सुरक्षित नहीं जहाँ वह अभी अजन्मी है..... .. लेकिन क्या करे पुरुष प्रधान समाज में बनी स्त्री की छवि, नारी प्रगतिशील होने पर नारी के ही विरोध में खड़ी हो गयी और हम आदि हो गए उसको कुचलता देखने की .... खुद नारी भी नारी के दुश्मन हो चली जिसका परिणाम आये दिन स्त्री पर कई किस्म के अत्याचार होने लगे परोक्ष और अपरोक्ष … जिनके आदी हो चुके थे हम... रोज अखबारों में ऐसी घटना का जिक्र आम हो गया था...क्यूंकि आम हो गया था विज्ञापनों में नारी देह की नुमाइश .. और आम हो गया था अश्लील साहित्य, चलचित्र और गाने, चाहे दुकानों में या अंतरजाल में,... आम हो गया था नैतिकता का पतन क्यूंकि घर में किसी के पास किसी के लिए फुर्सत नहीं थी, जो सीख दे समझाए ...शहरों में पड़ोस को पड़ोस की खबर ही नहीं ऐसा आम हो गया था … आम हो गया दहेज के लिए स्त्री का उत्पीडन .. और पुरखों से चला आ रहा था वंश वृक्ष, जहां न था स्त्री का कोई नामोंनिशान, वंश के नाम पर कन्या का कोख में क़त्ल सरेआम हो गया, इसका अंजाम - स्त्री का मिटने लगा नामों निशान - पुरुष अधिक और स्त्रियाँ कम, विकृत आदमी परेशान हो गया, और घर व बाहर स्त्री का जीना हराम हो गया, अब माँ की कोख में जी लेना भी उस स्त्री के लिए इम्तिहान हो गया | ….स्त्री महज स्त्री देह भोग का समान हो गया, सोच का आसमान समाज का संकीर्ण होता गया और पाश्चात्य परिधान हो गया| कसी जाने लगी फब्तियां, छेड़छाड़ और यौन कुंठाओं से ग्रसितों का नारी पर तेज़ाब फैंकना आम हो गया ..आम हो गया बलात् अपमान दूधमुही बच्ची का, प्रौढा का, किशोरी का, उसके बाद ह्त्या करना आम हो गया .. शायद किसी ने अनाचार की आवाज सुनी हो उस रात ...पर शायद कान बहरे हो गए हो उस वक़्त क्यूंकि ऐसा सुनना और निज और निजता आम हो गया .........

                              लेकिन हद की भी एक सीमा है - अति होने पर अति का अंत हो जाता है और कहीं न कही तो एक किनारा है जहां से शुरू होगी एक नयी सोच, सोच का खुला आसमान, नैतिक मूल्यों का परिपालन, नारी का सम्मान, और न्याय का नया क़ानून कि रुक सके ऐसे हादसों की पुनरावृति .... और शायद हम उस अंत तक पहुँच चुके हैं जहां से शुरूआत होती है एक सुरक्षित समाज की… ऐसा समाज जहां बेटी, माँ, बहन सुकून से जी सकें .. पुरुष, महिला बन कर नहीं बल्कि देश के नागरिक बन कर ...... और आज का वैचारिक, प्रगतिशील पुरुष भी कंधे से कंधा मिला कर उसके साथ है .. समाज ने महासंग्राम की बिगुल बजा दी है ... चेत जाओ तुम नारी की ओर कुदृष्टि करने वालों ... अब अपने अंजाम से खौफ खाओ | पर हां!

लेकिन ये बहुत नहीं, ये चंद लोंग हैं जो समाज में खतरे का ज्वालामुखी है पर ये समाज के अंदर चली आ रही दबी प्रवृति, दबी मानसिकता का उग्र रूप है जो कभी भी किसी भी स्त्री कों अपना शिकार बना लेती है .. ये उग्र हो जाते है, हवस के प्राप्ति के लिए यूँ कहें कि ये साफ़ तौर पर मानसिक रूप से विकृत लोंग हैं, किन्तु उन लोगो का क्या जो सहज लगते हैं किन्तु समाज के ढाँचे में उन लोगो के मन में भी औरत एक इस्तेमाल करने वाली वस्तु जैसी दिखाई देती है, वह इस बात कों स्वीकार नहीं करते, लेकिन अश्लील दृश्य, अश्लील संवाद और अश्लील साहित्य और चलचित्र उनकी दबी मानसिकता कों उकसाते हैं, तो वो अपना मानसिक संतुलन खो कर महिला के साथ बलात कर जघन्य अपराध कर जाते हैं तथा खुद कों बचने के लिए लड़की की ह्त्या भी कर देते हैं| समाज में ऐसे सुप्त वहसी बमों की कमी नहीं है, जो किसी भी अनजाने पलों में कहीं भी अपने आसपास की बच्चियों और स्त्री के लिए खतरा बन जाते हों|

इसके लिए यही समाज दोषी भी है| जहां स्त्री कों दोयम दर्जे की वस्तु माना गया | जन्म के बाद होश में आने पर बच्चे और बच्ची ने , भाई बहन और अपने माता पिता के रूप में स्त्री और पुरुषों के अधिकारों में जमीन आसमान का अंतर देखते हैं, स्त्री घर के अंदर शोभायमान होती है, और पुरुष घर के बाहर| यह सब उनके मन में गहरे पैठ जाता है और बड़े होने पर अगर कोई लड़की या स्त्री रात कों घर के बाहर दिखे तो उन्हें ये स्त्रियोंच्चित गुणों विलग हुई, कोई बुरी लड़की / स्त्री दिखने लगती है, और गन्दी नजरों से उन्हें देखने लगते हैं |

समाज में विज्ञापनों में स्त्री देह, इन्टरनेट की कुछ साइट्स में अश्लील सामग्री, पोर्न फिल्म्स, अश्लील साहित्य आदि जो सस्ते भी होते हैं उनकी उपलब्धता ऐसे विकृत दिमागों की विकृति बढ़ा देती हैं, और ऐसे एक थैली के चट्टे बट्टे साथ हो तो कुकर्म करने के लिए एक दूसरे के साथी हो जाते हैं... अज्ञान, अधकचरा ज्ञान, संस्कारविहीनता, शिक्षा का अभाव सब मिल जुल कर गलत प्रभाव डालता है| आजीविका के लिए परिवारों से दूर आये ऐसे लोग, जिनके साथ न उनकी बहने होती है, न कोई महिला, और उनकी बस्तियों में महिलावर्ग भी नहीं होता| उनकी कल्पना में शहर में लड़कियां किसी परी से कम नहीं होती, और वह इनकी सतत अभिलाषा रखते हैं| परिस्तिथिजन्य किसी वाकया में, या योजना के हिसाब से ये किसी स्त्री पर हमला बोल देते हैं| लेकिन कई बार यौन कुंठाओं से ग्रसित आदमी अपनी यौन तुष्टि के लिए कमजोर बच्ची या बुजुर्ग को भी साधता है| शाम के खाली समय में इन लोगो को नैतिक शिक्षा और शिक्षा मिलती रहे ताकि इनमें भी समाज को अच्छा नागरिक मिले ...

इसलिए मैंने कुछ बिंदुओं पर विचारा कि कैसे हम अपने समाज से इस बलात्कार की गन्दगी को हटा सकते हैं  .. और पाया एक स्वस्थ के संस्कारी नागरिक रुढिवादिता से दूर ही सुरक्षित है .. कुछ बिंदु

  • एक स्वस्थ और सुरक्षित समाज की नींव घर से पडती है| घरों में बच्चों कों अच्छी नैतिक शिक्षा  बचपन से मिलती रहे | क्या अच्छा है क्या बुरा है, उसको वह पहचान सके, और अपना सके| ऐसे बच्चों से एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा| 
  • बेटी बेटे में , भाई बहन में कोई फर्क न रखें| घर की महिला कों अच्छा पौष्टिक भोजन और बराबर का सम्मान मिले ताकि वह घर के लिए स्वस्थ तन मन से कार्य कर सके|
  • महिला पुरुष कों सामान अधिकार और सम्मान मिले| घर में घर की नारियों कों सम्मान और बराबरी का अधिकार मिले .. यही सब कुछ देख समझ के आज का बच्चा जो कल का नागरिक है, समाज में एक बेहतर सामाजिक भूमिका निभाएगा .. और महिलाओं के साथ घटती ऐसी घटनाओं में बहुत कमी आ जायेगी
  • वंशवृक्ष को सिर्फ पुरुष चलता है इसलिए वे महिलायें जिनसे परिवार को पुत्र रत्न नहीं मिला, उस परिवार के लिए उनका  ब्याह कर उस परिवार में आना दुखद था ऐसी संकीर्ण मानसिकता से बाहर आना होगा| पुत्र प्राप्ति के लिए महिलायें ही अपने गर्भ में स्त्री भ्रूण की हत्या कर देती है| यह समाज का सबसे काला पहलु है जहां माँ ही हत्यारी है| इसके होने से आज कई जगह ऐसी हैं जहां लडको की तुलना में लड़कियों की संख्या काफी कम हो गयी है| शादी के लिए लड़किया नहीं मिलती | असंतुष्ट पुरुष अपनी तुष्टि और यौन इच्छा के पोषण के लिए कौन सा कदम उठाये, यह उसके विवेक पर है| लेकिन यह स्तिथि अपराधिक मानसिकता को बड़ा सकती है|
  • साथ ही मीडिया भी समाज के लिए बेहतर भूमिका निभाए … विज्ञापनों के लिए नारी देह का शोषण न होने दें और अश्लील गानों चलचित्र साहित्य पर जहां कहीं भी हो रोक लगाएं | 
  • बाजारीकरण के दौर में नारी अपनी अस्मिता को समझें, वह देह से आगे बहुत कुछ है| सामान की खरीद फरोख्त के लिए विज्ञापनों में अपनी देह की नुमाइश न कर बाजार की नीती को समझें , नारीजाति के हित को समझे |  
  • सामाजिक साराकारों के लिए सब  आगे आयें| कहीं कोई दुर्घटना घट रही हो या कोई आपत्ति में हो तो उसकी मदद तत्परता से करें| कम से कम पुलिस कों सूचना तो दे सकते हैं| किसी लड़की को अगर लड़के छेड़ते हैं तो इसका विरोध सभी को करना चाहिए|
  • नारी को भी अपनी सुरक्षा का मापदंड स्वयं तय करना होगा| समय स्तिथि और माहोल और वातावरण के हिसाब से खुद कों ढाल सकने की क्षमता, अपनी सुरक्षा के लिए विकसित करनी होगी| किन्तु अगर वह सिर्फ अपनी नजर से देख कर यह सोचे कि परिधान वह कम से कमतर अपनी इच्छा के हिसाब से पहने और कोई उसकी ओर कुदृष्टि से न देखे तो ऐसा राम राज्य सिर्फ कल्पना में हो सकता है क्यूंकि समाज का एक वर्ग अपराधिक मानसिकता का है जिसके जेहन में संस्कारों की बात उतरती नहीं| हमारी जंग इस समाज से भी है फिर भी  नारी तय करे कि वह अगर कामुक वस्त्र पहनती है तो उसकी अपनी सुरक्षा का कितना इंतजाम है|                     

माना कि बलात्कार बच्चियों का भी हुआ और पर्दे में रहने वाली स्त्री का भी  हुआ यहाँ तक की वृद्ध महिलाओं का भी, तो भी भड़काऊ कपडे असामजिक तत्वों को निमंत्रण देते हैं, नारी को इस विषय में सजग रहना चाहिए  क्यूंकि उसकी सुरक्षा का मुद्दा सबसे बड़ा मुद्दा है| वह अपनी पसंद के स्टायलिश फेशनेबल कपडे पहने, जो कि उसका अधिकार भी है, लेकिन अपनी सुरक्षा को न भूलें| 

  • जुडो, मार्शल आर्ट, कराटे, हर बच्ची महिला को सीखना चाहिए| क्यूंकि अपना हाथ जग्गननाथ | महिला बाहरी सहायता मिलने तक कुछ समय अपराधियों का सामना कर सकती हि खुद को सुरक्षित रख कर   
  • समाज को नारी की दोहरी छवि कों मिटाना होगा जिसमे एक तरफ देवी तुल्य और दूसरी तरफ कमजोर इस्तेमाल की चीज जिस पर पुरुष का अधिकार है .. जबकि आज की नारी प्रगति चाहती है, बराबरी का अधिकार चाहती है, समाज इन छवि से ऊपर उसे उभरने नहीं देता | हमें सोच को बदलना होगा और इस प्रगतिशील उन्नत स्त्री को इन रूढ़ीवादी छवि से बाहर निकालना होगा क्यूंकि ये दोनों छवियाँ उसके शोषण का कारण है| कहीं प्यार से तो कही जोरजबरदस्ती से उसका शोषण ही होता है और इन दोनों छवियों से बाहर उसको अपराधी करार किया जाता है …जिसकी वजह से बलात्कार का शिकार होने के बावजूद अपराधियों का गुनाह कम माना जाता है और पीड़ित महिला का गुनाह ज्यादा माना जाता है और बलात्कारी को वो सजा नहीं मिलती जो उसे मिलनी चाहिए| 
  • पीड़ित लड़की या महिला वैसे भी कितनी शारीरिक मानसिक पीडाओं से गुजरती है | कम से कम समाज तो उसकी ओर न ऊँगली उठाये, जो गुनाह उसने नहीं किया, उसका गुनाहगार उसे न ठहराए|
  • एक बात और कि छोटे बच्चे व् मासूम भोली बच्चियां अपने साथ घटती घटना का जिक्र अपने माँ पिता और किसी से भी नहीं कर पाती जिसकी वजह से बलात्कारी ( जो कि एक पडोसी से ले कर खास अपना रिश्तेदार भी हो सकता है) रोज रोज उसका दैहिक शोषण करता है| बच्ची जिंदगी भर कुंठाओं से भर कर जीती है | माँ पिता और घर के बुजुर्गों का यह कर्तव्य है कि बच्चे के हावभाव समझें, उसको जोर जबरदस्ती किसी के हवाले न करके जाएँ | उसके अंदर इतना आत्मविश्वास जगाओ कि वह वह आप से इस तरह की बातें बेहिचक शेयर कर सके| जब वह इस तरह की बात करने की हिम्मत जुटाता हो तो उसे बीच में न टोक कर उसकी पूरी बात सुननी चाहिए| अक्सर देखा जाता है कि बच्चों के मुंह से ऐसे विषय पर हुई बातों को एकदम यह कह कर रोक लिया जाता है कि बच्चों की मुंह से ऐसी बातें अच्छी नही लगती| बलात्कार का शिकार बच्चा दुविधा में पड़ जाता है जहां उसका कोई अपना सुनने वाला नहीं होता और वह एक घुटन भरी जिंदगी जीने के लिए मजबूर होता है और बलात्कार ( Child Abuse ) का शिकार होता रहता है|  
  • सजा - यूँ तो सजा देना एक मात्र उपाय नहीं .. समाज की मानसिकता में बदलाव ही सबसे जरूरी कदम है, फिर भी बलात्कार के दोषी को इतनी कड़ी से कड़ी सजा मिले जो खुद में एक मिसाल हो, ऐसे असामाजिक तत्वों के रोंगटें खड़े हो जाए कि उसके ऐसे बलात्कार और हत्या जैसे अपराध की और बड़ते कदम रुक जाएँ …  सन १७३५ ( लगभग ) का अग्रेजो के समय में उस देश काल परिस्तिथि के हिसाब से बना क़ानून जिसमे अभी सिर्फ एक बार मामूली संशोधन हुआ है वह आज के परिपेक्ष में अधूरा है ..ज्यादातर बलात्कारी बच जाते हैं .. महिला का शोषण और यहाँ तक की अगर बच्चे की मौत या रेप ओरल रूट या अप्राकृतिक सम्बन्ध  के द्वारा किये गए बलात्कार से होती है तो भी कानून की दृष्टि में वह बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता ..  ऐसे क़ानून को बदलने की दरकार है| महिला और बच्चे के शरीर पर हुए हमले जो कि इसी गन्दी मासिकता के चलते किये गएँ हो वे रेप की श्रेणी में आने चाहिए उसमे सेक्स हुआ की नहीं यह नहीं देखा जाना चाहिए|  अपराधी की मानसिक सोच और मनसा पर ही पर ही उसको कड़ा से कड़ा दंड मिले| ऐसे संशोधनों की आवश्यकता है जिसमे अपराधी को तवरित सजा मिले|\
  • समाज में ऐसी संस्थाओं को बल मिले और उनका साथ दिया जाए जो समाज के हित के लिए एकजुट हैं|  और संस्थाओं को मिलजुल कर आगे बड कर समाज में रेप के विरोध और निर्मूलन के लिए तर्कसंगत स्थायी रास्तों की तलाश कर सरकार से मिल एक वैधानिक नीति तैयार करें |
  • बाकी अभी इस मुद्दे पर कई और बातें हैजो बाद में जोड़ी जायेंगी जब समाज का की हर स्त्री पुरुष बोलेगा तो उनका नजरिया भी अहम होगा |

मेरे अस्पताल के अभी के सात महीने के आंकड़े - हतप्रभ थी उस चार साल की बच्ची को देख कर   जो अगवा कर कई दिनों कुकर्म के बाद उसे छोड़ा गया था ... वह अपने माँ पिता का नाम बताने में असफल थी और और शहर या गाँव का नाम भी न बता पायी थी .. बाजार में भटकती, रोती, बिलखती  इस बच्ची कों चेकअप और इलाज के लिए अस्पताल में लाया गया था, जहां मैंने इसे देखा था

  दूसरी बच्ची अस्पताल में लायी गयी थी वह ९ महीने की थी, जो स्त्री पुरुष क्या होते हैं, यह भी न जानती थी  .. वह भी कुकर्म का शिकार थी

तीसरी एक लड़की थी जो गेंगरेप की शिकार थी ..

चौथी एक विक्षिप्त महिला थी जिसका तीसरा बच्चा ऑपरेशन करके निकालना पड़ा था |

यह मेरे सात महीने के आंकड़े हैं जिनकी मुझे जानकारी थी, ( मेरी जानकारी में न हों और दूसरे डॉक्टर की ड्यूटी में हो और मुझे जानकारी नहीं थी - ऐसे भी कई केस रहे होंगे)  जो सरकारी अस्पताल में दिखे |

कितनी ही घटनाएं रोज अखबारों में पढ़ी …मुझे याद है कि एक ७० - ७२ साल की महिला के साथ कुछ अज्ञात युवकों ने बलात्कार कर पहाड़ी के निचे धकेल दिया था जो नीचे गाँव की ओर जाती हुई पगडण्डी में अटक गयी थी ..

इन महिलाओं का सेक्स से कुछ लेना देना भी नहीं था न ही इनकी उमर थी ..फिर भी ये शिकार हुई ..

 

.

आज मेरी तीन पुरानी कवितायेँ ... जो महिला / बच्ची पर कुदृष्टि और बलात्कार से सम्बंधित है

 .१) आज बच्चियां और महिलाएं कितनी असुरक्षित है समाज में

 

शहद
छत्ते से जब
गिर कर टपक जाता है
शिकारी आतुर आँखें
मक्खियों की
ढूंढ लेती हैं उसे |
शिकंजो में जकड कर
खतम होने तक
चूस लेती हैं उसे
शहद ठीक उसी तरह
जैसे मक्खियों से भरे इस समाज में
लड़कियां और बच्चे | ..…………….. डॉ नूतन डिमरी गैरोला

 

Presentation1 शहद

 

२) ऐसे पापियों कों चेताती स्त्री ...

.

मेरी हदों को पार कर

मत आना तुम यहाँ

मुझमे छिपे हैं शूल और

विषदंश भी जहाँ |

फूल है तो खुश्बू मिलेगी

तोड़ने के ख्वाब न रखना|

सीमा का गर उलंघन होगा

कांटो की चुभन मिलेगी …

सुनिश्चित है मेरी हद

मैं नहीं

मकरंद मीठा शहद ..

हलाहल हूँ मेरा पान न करना |

याद रखना

मर्यादाओं का उलंघन न करना ||

.Presentation2 शूल

३)  बलात्कार की शिकार महिला का और उसके परिवार का समाज जाने अनजाने उनको इंगित करते हुए अपने से अलग ठहरा देता है और इस आग में बलात्कार की शिकार महिला और उसके परिवार जल उठता है … पीड़ित महिला के आत्मा के चिन्दे चिन्दे हो जाते है .. जब कि वह उसके बाद भी उतनी ही समर्थ और पवित्र है क्योंकि गुनाह उसने नहीं किया इस बात को समाज को भी समझना चाहिए कुछ इसी आशय से यह कविता लिखी गयी थी ….

 

चंद हाथों में
मशाल
अग्नि, धुआँ 
जल जाता है आशियाना उसका अपना
जल जाते हैं साथी अपने
छज्जा अपना |
बूंद बूंद
निचुड़ निचुड़ कर वह
बाजारों में बिक जाता है |
आग पानी से युद्ध में
खरीद फरोख्त की उठा पटक में
रसास्वादन से अपने अंत तक
खोता नहीं है अपनी मिठास
शहद शहद ही रहता है
अपनी मिठास के साथ
अपने अंत तक|

Slide1

आज पूरा समाज एकजुट हो कर उसके साथ है  और ऐसी समस्या का जरूर कोई समाधान निकलेगा ... मैं इस इच्छा और उम्मीद के साथ यहाँ पर लिखने पर अल्पविराम लगा रही हूँ कि आने वाला कल न्यायोचित होगा .. अपराधों, हादसों बलात्कार और महिला  का शोषण नहीं होगा | महिला पुरुष एक दूसरे के पूरक और साथी होंगे जिसमे कोई कम या ज्यादा न होगा|


Sunday, December 16, 2012

मेरी डगर - डॉ नूतन डिमरी गैरोला


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एक लंबा पथ

लक्ष्य की ओर

अग्रसर अभिशरण,

उन्मार्ग करती भ्रमित

रास्ते की बाधाएं.......

 

बदबू , दुर्गन्ध, बास

पर तुम हो कि चुन चुन लाते हो,

सुगंध धुंआ होती अगरबत्ती से

और मैं चन्दन हो जाती हूँ

सुवासित |

 

कंकड़, प्रस्तर, अँधेरे

और तुम रश्मिपुंजों को थाम

समावेशित हो जाते हो मेरे भीतर

और मैं हीरा हो जाती हूँ

आलोकित|

 

कीचड़, कुआं, दलदल

जिन पर तुम चलने लगते हो

गोद में लिए मुझे,

करते अभियुत्थान मेरा

और मैं कमल हो जाती हूँ

खिल खिल उठती हूँ

परिमार्जित |

 

शूल, कांटे, अंगारे

मेरे पैरों के पोरों पर

ढल जाते हैं मखमली गलीचों से

तुम्हारा स्पर्श कोमल पुष्प सा

मुकुलित हो जाता है कदमों पर

बन जाती हूँ मैं राज्ञी,

सौभाग्यशाली राजवंत

पी लेती हूँ तुम्हारे साथ का

अमृतरस |

 

मुझे नहीं है भय

बाधाओं का

बदबू, दुर्गन्ध, बास का,

कंकड़, पत्थर, अंधेरों का

कीचड़, कुँए, दलदल का

शूल, कांटे, अंगारे का|

 

बस मुझे तो अविरल चलना है|

जैसे सूरज एक

सुधांग एक , 

मेरी एक डगर

मेरा परमलक्ष्य

दूर क्षितिज के राजमहल में

होगा परममिलन  |…………………..  नूतन

Tuesday, October 30, 2012

नयी सुबह का ख्याल

     
   

                सुबह पर्दों पर दस्तक सी देती हुई कमरे में उतर कर बिखर जाती है ..  सुबह अक्सर जब आती है तो चिंताएं छोटी पड़ जाती .. सुबह के हाथों में या तो करामाती  छड़ी होती जिसके शीर्ष पर चमकता वह जादूई सूरज अपनी रौशनी से दुःख के अंधेरों कों हल्का कर देता ... या कि सुबह अपनी झोली में भर ले आती है  रंगीनियों से भरे अद्भुत नज़ारे और. संगीत चिड़ियों का, पहचानी आवाजों का, सड़क के कोलाहल का ... जिसमे दुख की आवाजें डूब कर घुल जाती ... मैं मन की खिडकी और दरवाजे खोल देती हूँ, कुछ ताज़ी निर्मल हवा, कुछ मृदुल संगीत  खुशियों से भरा सुबह का आलोक मन के कमरे में उर्जा भर देता है ..    फिर यूँ होता सुबह सुबह एक चाय की प्याली की  रस्म ..जो रस्म अभी तक बदस्तूर चली आ रही है  .. और एक मनपसंद  प्याली चाय की हो ही जाती है  ..  बस रात के अंधेरों में उठते चिंताओं के सैलाब सिमट कर सिकुड जाते है .. दिन बाहें पसार कर स्वागत करता है .. चाय के घूंट के साथ बस एक मुस्कान बिखर जाती है ... तब बाल झटकती हुई कहती है सुबह ..रात गयी बात गयी .. अब नया दिन है नयी शुरुआत है और  फिर चिड़ियों की तरह खुशियों से भर  तिनका तिनका तलाशना .. कल की हवाओं में सरक आये थे जो तिनके उनको फिर से समेटना   बुनना.. घरौंदा मजबूत करना, मैं आँगन में कुछ नए फूल आशा और उम्मीद के रंगों से भरे  बो देती हूँ  और प्रार्थना करती हूँ  कि दिन खुशियों से भरा व्  सफल  हो  और रात शांति कों ले कर आये --- सभी ब्लॉग मित्रों कों मेरा सलाम .. शुभप्रभात

 

डॉ नूतन गैरोला – ३० अक्टूबर २०१२

Monday, October 15, 2012

तुम मैं और वह कविता - डॉ नूतन गैरोला



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तुम्हें याद है क्या कि तुम किसी अनजान की कविता सुना रहे थे उस रात …..शायद तुमको तो  मालूम था तब कि कविता किसकी थी …... मैं तो  बस सुन रही थी …...सुनना मेरा काम था और सुनाना तुम्हारा  ….. तुम  तो कविता में खोये थे और मैं? .. . मैं  तुम  में ..

तुम  बोले जा रहे थे --

कुछ विकल जगारों की लाली

कुछ अंजन  की रेखा काली

उषा के अरुण झरोखे में

जैसे हो काली रात बसी

दो नयनों में बरसात बसी  ..

बिखरी बिखरी रूखी पलकें

भीगी भीगी भारी पलकें

प्राणों में कोई पीर बसी

मन में है कोई बात बसी

दो नयनों में बरसात बसी ...

         तुम  सुना रहे थे ..उधर बाहर बारिश का शोर था और इधर अंदर मेरी आँखों में भी बरसात का जोर था …. तुम  इन सबसे अनभिज्ञ पूरे मनोयोग से किताब पर मन लगाए हुए थे और यह  बेदर्द कविता ज्यूं  मेरे ही हाल को बयां कर रही थी …...यही वह कविता थी न जिसने तुमको  नजदीक हो कर भी मुझसे दूर कर दिया था| साथ रह कर भी हम तुम कहाँ साथ थे …. तुम कविता में डूबे मुझसे बेखबर अपने पात्रों को गढ़ते, लिखते, पढ़ते और मैं तुम में खोयी खुद को तुम में ढूंढती अतृप्त सी ….. क्या तुम्हें मालूम है कि आज भी तुम यह कविता मेरे लिए गा सकते हो क्योंकि कुछ मेरा हाल ऐसा ही हो कर रह गया .…. और आज मैं भी गुनगुना रही हूँ एक कविता की पंक्तियाँ

अब छूटता नहीं छुडाये

रंग गया ह्रदय है ऐसा

आंसूं से धुला निखरता

यह रंग अनोखा कैसा |

कामना कला की विकसी

कमनीय मूर्ति बन तेरी

खींचती है ह्रदय पटल पर

अभिलाषा बन कर मेरी |....

अब तो मैं भी जानने लगी हूँ कि यह कविता किस ने लिखी है क्यूंकि अब मुझे भी कविताओं से प्रेम होने लगा है|….और अब वह व्याकरण का घोड़ा मुझे अपनी पीठ से भी नहीं गिरता बहुधा जिसकी लगाम तुम्हारे हाथों में हुआ करती थी | आज मैं उस घोड़े पे सवार सरपट पहुँच जाती हूँ कविताओं की उस भूमि जहां पर कई रंगों की भावनाओं में डूबे महकते हुए अनेक रंगों के फूल खिले होते है,  .... और मैं रंग जाती हूँ उनके रंग में क्यूंकि आज रंग गयी हूँ रंग में तेरे .....और रॅाक स्टार चलचित्र  के इस सूफियाना गीत के बोल अक्सर फूट पड़ते हैं…. 

 

रंगरेज़ा रंगरेज़ा रंग मेरा तन मेरा मन

ले ले रंगाई चाहे तन चाहे मन

रंगरेज़ा रंगरेज़ा रंग मेरा तन मेरा मन

ले ले रंगाई चाहे तन चाहे मन ..

 

 

Posted by डॉ. नूतन डिमरी गैरोला-







       
जब कुछ भी नहीं था, वही था वही था , रंगरेजा




Friday, October 12, 2012

फिर एक नयी शुरुआत - डॉ नूतन गैरोला


          
         Morning-Walk[3]

एक बेडी तोड़ने का प्रयास .. बेहद कस दिया था जिसने जीवन .. बैल की नाक नकेल ..कोल्हू में फिर फिर पेरा गया बैल .. पिंजरे का दरवाजा .. बंद हुआ था ... एक बंद कमरा ... नक्कारखाने में आवाजों का घन सर पर चलता रहा .. तूती प्रताड़ित भयभीत और भी सिमटती रही .. अपने होने की हर जिम्मेदारियों का निर्वहन करती रही और नकारा जाता रहा उसे हर वक़्त .. महीनों की जद्दोजहद और एक दिन हुक्मरानों की गुलामी के तिलस्म को रुखसत कर  … तोड़ के वो बेडी, निकाल के नकेल, खोल के दरवाजा , खुली हवा में तूती बड़े जोश से बजने चली .. पर बज न सकी क्यूंकि काली यादों की परछाइयों ने बेड़ियों की तरह जकड लिया था, नकेल से कस लिया था, चिल्ला कर उठ रहे थे ताजातरीन अतीत के पन्नों के वो मायावी जिन्न और भय के भयावने कमरे में कैद हो रही थी वह .. चंद, अपने से लगते लोग उसे डरावने से कमरे में धकेल बाहर से दरवाजे का कुंडा चढ़ा रहे थे .. भलाई के उसके दुहाई दे रहे थे ... लड़नी होगी उसको ये जंग .. फतह करना होगा उसको ये भय .. अतीत से उठ कर भविष्य के नीले खुले आकाश की ओर देखना होगा .. जिसके लिए आज की अपनी धरती पे आना होगा उसे और सुनहरे भविष्य के बीज बो कर उन्हें सीचना होगा, कुछ समय का इन्तजार कुछ समय की मेहनत.. कल उसका अपना होगा .. जहा वह मधुर मधुर गुनगुनायेगी मुस्कुरायेगी, अपनों को गले लगाएगी ... वह अब चलेगी अकेले ही पर उसे दूर से ही सही तुम्हारा आशीर्वाद चाहिए .. आज से उसका सफ़र शुरू हुआ ..शुभ हो प्रभात शुभदिवस …. डॉ नूतन गैरोला
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Thursday, October 4, 2012

फिर एक चौराहा - डॉ नूतन गैरोला

  



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इम्तिहान, इम्तिहान, इम्तिहान,.. न जाने जिंदगी कितने इम्तिहान लेगी, हर बार एक नया चौराहा, हर बार खो जाने का भय , मंजिल किस डगर होगी कुछ भी तो उसे खबर नहीं ,……. ……..मंथन मंथन मंथन जाने कितना ही आत्ममंथन, हर बार पहुंची उसी जगह ज्यूँ शून्य की परिधि पर चलती हुई …………..चढ़ते, चढ़ते, चढ़ते,.. जब शीर्ष पर पहुचने लगे -थरथरा रहे थे कदम, फूलने लगे थे दम,  मंसूबों की कतरनों को थामें, ढलानों पर फिसलने लगी ….... ……मुस्कानें, मुस्कानें, मुस्कानें , ..देखो! गालों पर खिलती हुई कानों तक पहुंची मुस्काने, चमक रहे थे जो, दिखे नहीं किसी को, उसकी आँखों के धुंधलाते सितारे … शायद उसके भीतर बहुत कुछ टूट गया था, उसका विश्वास चरमरा गया था… फिर भी अभी एक आस है, क्यूंकि अभी कुछ सांस हैं………... उसने अंधेरों में एक चिराग जला लिया है और कम पड़ती रौशनी में चश्मा पौंछ कर पहन लिया है …... क्यूंकि आखिरी सांस भी जिंदगी दे जाती है और क्या पता जिंदगी थाम के हाथ, पहुंचा दे मंजिल के पास …. ..पर फिर मंजिल पर पहुँच कर एक नया मंसूबा एक नया चौराहा, सतत चलते रहने की चाह  .….  यही गति है, यही जिंदगी है, यही जीने का नाम है ..............................

 

                         नूतन - ४/१०/१२ .... १८ : २४

Friday, September 14, 2012

जब हम सर पीटते रह गए - हिंदी दिवस पर दो संस्मरण .. डॉ नूतन गैरोला


  ये संस्मरण, राष्ट्र में एक भाषा की अनिवार्यता पर लिखें हैं - जिसके बिना हम अपने ही देश में परदेसी हो जाते हैं| हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, यह देश के हर नागरिक की भाषा होनी चाहिए| कम से कम देश के नागरिकों कों हिंदी की जानकारी तो होनी ही चाहिए| हिंदी का  साहित्यिक स्तर पर कितना भी विकास हो लेकिन अगर देश की  २० प्रतिशत से ऊपर जनता हिंदी बोल और समझ ही नहीं पाती तो यह हिंदी का कैसा विकास होगा जो सिर्फ कागज़ कलम और हिंदी के साहित्यकारों के साथ जुडा है, हिंदी बोलने और पढ़ने वालों की भी उतनी ही आवश्यकता है| हिंदी एक आम भाषा होनी चाहिए वो एक ऐसी भाषा है जो हमें आपस में जोड़ती है, एक दुसरे कों समझने का मौक़ा देती है तो आओ क्यों न हम हिंदी अपनाएँ और देश में आपसी प्रेम और सौहार्द कों बढ़ाएं|  इसी सन्दर्भ में मेरे दो संस्मरण -

जब हम सर पीटते रह गए

      बात उन दिनों की है| जब हम “ऑल इंडियन सर्जिकल कांफेरेंस” के सन्दर्भ में कोयम्बटूर गए थे| ज्यादातर हम लोंग पठन पाठन, परिवार और मित्रों में इतना व्यस्त रहते थे कि  हमें भाषा संबंधी विभिन्नता का अहसास नहीं होता था| | कांफेरेंस में वर्कशॉप अटेंड करने के बाद हमने खाली समय पर शहर के बाहर साईट सीन करने का प्रोग्राम बनाया और जिस होटल में हम रुके थे वहाँ से एक टेक्सी हमें मिली|  दोपहर बाद हम “ध्यानलिंगम” के लिए रवाना हुए| उत्तर भारत के पहाड़ों से उतर कर हम उतर दक्षिण भारत पहुंचे हुए थे| जहाँ हमारा दिन रात ऊँचे पहाड़ी रास्तों में देवदार चिनार चीड बुरांस का साथ रहा, वहीँ हम यकायक सर्पिल सीधी सड़कों पर दोनों तरफ नारियलों के वृक्षों से घिरे हुए| मन में कितनी ही कोतुहलता, कितना कुछ जानने समझने की इच्छा, जिन रास्तों से हम गुजर रहे थे उस जगह ठिकानों का नाम, संस्कृति, रहन सहन, पहनावा, पसंद नृत्य गीत आदि कों जानने की उत्सुकता, वहाँ की खासियत के बारे में सुन देख कर अपने मन मस्तिक पर छाप कर स्मृतिपटल पर उतारने की इच्छा  …लेकिन हम जिन रास्तों से गुजर रहे थे वह ड्राईवर कृष्णामुर्थी उन रास्तों और जगह का नाम भी न बता पाया .. हमने ड्राइवर से बहुतेरी पूछने की कोशिश की पर वह समझने और बताने में विफल रहा और वो जो बताता वह हम समझने में विफल रहे| उसे हिंदी आती ही नहीं थी और इंग्लिश वह जानता भी न  था| रास्ते में उसने नारियल पानी पिलाने के लिए रोका और इशारे से बोला वो - हमने कहा हम पियेंगे| फिर वहाँ जो भी लोंग हमें मिले कोई भी हिंदी नहीं जानता था न वह किसी शहर या गाँव का नाम हिंदी या इंग्लिश में मिला| हम तो अपने ही देश भारत में थे ..लेकिन हिंदी का ऐसा बुरा हाल, हिंदी का कोई एक शब्द नहीं जानता था वहाँ राजभाषा मातृभाषा क्या यही थी अपनी हिंदी अपना हिन्दुस्तान| फिर हम टेक्सी में बैठ कर आगे चल दिए काफी कोशिश के बाद भी जब वह कुछ नहीं बता पाता या सिर्फ  जाने क्यूं हां का इशारा कर गर्दन हिला देता जबकि हम और कुह पूछ रहे होते ..हम मन मशोस कर रह जाते .. और हमारे बीच एक गहरी चुप्पी छा जाती ..जिसके बीच अचानक वह कुछ बोलता जो हमारी समझ से बाहर होता ऐसे में वह हमें कोई गाली भी दे रहा हो तो क्या हमारी समझ से परे था | उन अनजानी अनाम सड़कों पर हम जैसे तैसे गुजरे पर जो भी हो आखिरकार हम ध्यानलिंगम पहुँच गए |

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                                ध्यानलिंगम में पहुँच कर

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वहाँ की हवाओं में निहित देवत्व, स्नान, शांति, ध्यान, समाधि का जो अवर्णित परमसुख मन कों मिला उस विषय पर नहीं जाउंगी| हाँ वापसी में हम ड्राईवर कों समझाने में सफल हुए कि कल की यात्रा के समय कोयम्बटूर का नक्शा ले कर आना ताकि हम समझ सके कि हम किस जगह है और किन सडकों से गुजर रहे है | आखिरकार वह समझ गया कि शायद हम नक़्शे की बात कर रहे हैं|| भाषा की इस खाई कों यूँ इशारों से पाटने के बाद तो ड्राइवर और हमारे चेहरे पर ऐसी मुस्कान थी जैसे हमने एवरेस्ट फतह कर लिया हो|


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                    कोडिसिया ट्रेड फेयर के द्वार पर स्वागत कुछ यूँ हुआ |      

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अगले दिन सुबह सुबह हमें कोंडीसिया ट्रेड फेयर कॉमप्लेक्स  जाना था जहां कोंफ्रेंस चल रही थी | तैयार हो कर बाहर निकले तो ड्राइवर कों बाहर मुस्कुराते हुए पाया|  स्वागत करते हुए उसने गाडी का दरवाजा खोला और हम दन से उस पर सवार हो गए| यह सब कुछ खामोशी के बीच हुआ| इसमें भाषा कों कोई आदान प्रदान नहीं था| आगे दो चौराहे पार करने के बाद उसने आवाज निकाली और इशारा किया और एक कागज हमारी और बड़ा दिया| हमने कहा “ मेप ? नक्शा ? ” ? वह बोला ? उसने हामी में उत्तर दिया| हम भी बड़ी खुशी से से मेप खोलने लगे सोचा चलो आज तो हमें सड़कों और जगह का ज्ञान हो जाएगा| लेकिन जैसे ही नक्शा खुला हम माथा पीटते रह गए| पूरे के पूरे मेप में तेलगु भाषा थी और हमारे समझने लायक कुछ भी नहीं था | क्या यह हिन्दुस्तान था? हाँ यह हिन्दुस्तान का दूसरा चेहरा था जहां हिंदी का कोई अस्तित्व ही नहीं था| क्यों हिंदी कों बढ़ावा नहीं मिला और क्यों कई राज्यों में हिंदी कों नजरअंदाज किया गया|

     

 

    और हम जब गूंगे बहरे हो गए    

  कोयम्बटूर से ठीक वापसी से पहले लखनऊ से भाभी जी का फोन आया और साऊथ सिल्क की साडी की फरमाइश थी | तब हमें ध्यान आया कि हमने भी खुद के लिए कुछ नहीं खरीदा था| हम खरीदारी के लिए बाजार निकले  लेकिन बाजार में हमारा कहा बोला समझने वाला जब कोई नहीं मिला और जो वो बोल रहे थे वो हमें समझ नहीं आया तो बड़ी निराशा हाथ लगी और उदास से हो गए| न तो कुछ पसंद आया न कुछ समझ आया|
                          तभी  एक बड़ी साड़ी की दूकान दिखी तो मेरे पति डॉ गैरोला दूकान के अंदर चले गए और गूंगा बहरा होने का अभिनय करते हुए इशारों से साडी दिखाने की मांग शुरू कर दी| हम हंस हंस के लोटपोट हुए जा रहे थे और माहोल में हँसी भर गयी| हम उन्हें रोक भी रहे थे कि यूँ न करें कोई देखेगा तो?   खैर उन्होंने उसी तरह खरीदारी में मदद की और अच्छी अच्छी साड़ी सही मूल्य में खरीदवा डाली | बाद में शोरूम से बाहर निकल कर हमारे सब के हँसहंस के बुरे हाल थे| तब  डॉ गैरोला बोले  कि बिना भाषा के तो हम गूंगे बहरे जैसे ही तो हैं| चारा तो सिर्फ इशारे में बात करना ही था और एक दुसरे की  भाषा न समझ कर हम उनके लिए और वो हमारे लिए गूंगे बहरे ही तो हो गए थे| फिर बोल बोल कर एक दूसरे का समय क्यों बर्बाद किया जाए जब पाषाणयुग की तरह इशारों से ही काम चलने वाला था| और हुआ भी वही इशारों से बात बन गयी| 
                           किन्तु प्रश्न यह उठता है कि हम अपने देश से बाहर नहीं गए थे फिर भी हम एक दूसरे के लिए गूंगे बहरे जैसे हो गए थे| अब एक भाषा की महत्ता पर  भी ध्यान गया  और लगा  कि  देश में एक ही भाषा कों राष्ट्रीय स्तर से पूरे राष्ट्र में सामान तौर पर  बढावा क्यों नहीं मिला है | क्यों हिंदी की इतनी बुरी दशा है और वह क्यों कई राज्यों में नजरअंदाज की गयी है| जब तक देश में एक भाषा नहीं हम तब तक एक दुसरे के लिए गूंगे और बहरे ही हैं| आओ हम सब मिल कर देश की राष्ट्रभाषा हिंदी के न केवल साहित्यिक अपितु व्यापक और सर्वागीण विकास के लिए सकारात्मक कदम उठायें और हिंदी अपनाएँ|


                                         मैं अपने लिए लिख सकती हूँ|
   
                                             मैं  और हिंदी

                                       मेरे पहले बोल हिंदी|

                                       मेरी हर सोच हिंदी|

                                       मेरी भाषा हिंदी|

                                       मैं अ से ज्ञ तक हिंदी|

Thursday, August 30, 2012

मैं अबला नहीं - डॉ नूतन गैरोला




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मेरी हदों को पार कर
मत आना तुम यहाँ
मुझमे छिपे हैं शूल और
विषदंश भी जहाँ |
फूल है तो खुश्बू मिलेगी
तोड़ने के ख्वाब न रखना|
सीमा का गर उलंघन होगा
कांटो की चुभन मिलेगी …
सुनिश्चित है मेरी हद
मैं नहीं
मकरंद मीठा शहद ..
हलाहल हूँ मेरा पान न करना |
याद रखना
मर्यादाओं का उलंघन न करना ||


      *********
“शहद” शीर्षक के नीचे लिखी गयी मेरी कविताओं के संकलन से   एक कविता********** डॉ नूतन गैरोला

Friday, August 3, 2012

वह आदमी और उसका साथ --- नूतन

  
                  
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                      वह आदमी ..एक छोटा बच्चा सा .. पहली बार मेरी पलकों का खुलना हुआ .. मैंने पाया अपलक निहारता मुझ पर झुका हुआ   .. बचपन का साथी रहा वह मेरा अब मेरे संग अधेड़ हुआ जा रहा था   .. कई कारवाँ जुड़े और टूटे पर उसका जुड़ाव कभी न टूटा ..बंधा हुआ था वह मुझसे अद्रश्य किसी डोर से .. देखा मैंने उसको कितने ही आवरणों को बदलते .. रंग बदलते … देखा मैंने उसको सुनहले रंग में और देखा उसके आँखों के अंदर कितना गहरा काला  ..मुसीबतों के मझधार में डूबती मेरी कश्ती को मुस्कुरा कर पार लगाता .. मेरे आँखों से आंसू छलक आते तो कहता चल पगली अब हँस भी ले…वह अपनी आरामदेह बाहों में लपेटे रहता .. पर कभी कुटिल मुस्कान के साथ .. अच्छी खासी हरियाली राहों से उठा दुःख के भट्टी में मुझे धकेल देता.. मैं चिल्लाती रह जाती ..लेकिन जब भी ऐसा करता हर बार मुझे निकाल भी देता .. कुछ ढ़ींठ भी था वह .. लेकिन हर बार उस भट्टी की आंच से मैं खुद को निखरा पाती… शायद वह मुझ में और निखार चाहता था … कभी रुग्णावस्था में मुझे अस्पताल भर्ती किया जाता तो वह रात दिन की ड्यूटी देता मुझसे थोडा छिटक कर  .. और जब अस्पताल से छुट्टी मिलती तो वह भी अन्य लोगो के साथ मुझे थामे घर ले आता …हर अँधेरे में हर उजाले में .. चाँद सूरज गवाह थे और अँधेरा भी .. उसका मेरे संग होना ..| समुन्दर की लहरों का पांवो पर मचलना  या बादलों को ऊपर से झांकते मुझे रिमझिम बरसा में पिघलाना .. अपनी साँसों से फूंक जाता था वह सांस मेरी .. पर जब भी जानना चाहा उसका नाम बड़ी चालाकी से टाल जाता था वह ..कह देता था तुम्हें आम खाने से मतलब या गुठली गिनने से …
                       मैं कैसे कहूँ कि इतने बरसों में मुझे उसे देखने की आदत हो गयी है …जो आदत, आदत हो जाती है वह आदत नहीं, जिंदगी हो जाती है .. भला कोई अपनी धडकनों को जान पाया है कभी या कोई अपनी साँसों को आते जाते देखता है वह मेरी वैसी ही तो आदत है जिसे मैं समझती नहीं पर जो है और मैं उससे बेपरवाह  ..
                            आज  उस कालगर्त में पैर फिसलते अँधेरे में किंचित घबराई न थी मैं जब तक मैंने जाना था वह मेरे साथ है   .. फिर मैंने पाया था महज चार कन्धों पर मिटटी का एक ढेर  मुझसे था | लोंग पुकार रहे थे उस आदमी को क्यूंकि वो  मेरा और मेरा ही साथी था .. मैंने   भी उसे पुकारा पर अब वह सुनने वाला न था क्यूंकि समय की घिरनी में उसका मेरा साथ इतना ही था .. वह  दूर  जा चुका था ..  मैं उस अंधियारे गर्त से निकल दूर क्षितिज में एक चमकते सितारे की ओर बढ़  चली जहां शायद वह मुझे फिर से मिल जाए .. आज जाना था मैंने उस आदमी का नाम | वह मेरी “ जिंदगी” था |
  

                               जिंदगी फिर से मिल जाना, मुझको गले लगाना |

………….डॉ नूतन गैरोला ---  3 अगस्त 2012 …  समय -  11 : 50 AM

Wednesday, August 1, 2012

पहला स्पर्श छुईमुइ सा



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एक हल्की छुवन

जैसे किसी ने मयूरपंख से छु कर

प्रेम के अनजान सुप्त समुन्दर में

लहरों को जगा दिया हो …

.

.

अनुभूतियां तरंगित हुवी

लाज से वह सिमट गयी …

माथे पे बूंदें

शबनम सी घबरा के निखर गयी …

गालों पे

सुर्ख गुलाब शरमा के उभर आये ..

चितचोर की झलक पे

पलकें झुकी जब उठ न पाए …

कहने को तो जाने क्या कुछ बहुत न था

आवाज बंद थी होंठ लरजाये…

अंग अंग बोझिल हुआ

मदभरा शुरूर छाये …..

.

.

यह पहला स्पर्श था सावन का..

बूंदों की रिमझिम पर

छुईमुई सी वह लजा जाए |… ....

.

.

डॉ नूतन गैरोला .. ८/१/२०१२,,, ८:१६ सुबह …….मेरी नीजि खींची तस्वीर … घर के आंगन में छुईमुई पे जब फूल खिला तो मैं तस्वीर लिए बिना न रह सकी  .. तस्वीर भी आज ही की  खींची हुई …

Wednesday, July 18, 2012

My clicks My Photos - सुबह बगिया के सैर

   आज सुबह ७:१५ से ७:४५ (17/8/2012 )तक मैंने सैर की -- और अपने साथियों की तस्वीर खींच ली |
आज चंद लम्हों में समेटा
दुनियाँ जहां का प्यार
मेरी बगिया की गिलहरी
चिड़िया चीं चीं चहकती
मुझसे बेपरवाह रहती
मेरे इर्दगिर्द टहलती |
और दीवार पर  
मेरे समान्तर घूमते रहते
एक परिवार के नेवले
आवाज लगाते और कहते
हम है साथी सैर के
ज़रा इधर भी देख ले |

मैंने आव देखा न ताव ..तुरंत उन्हें अपने कैमरे से पकड़ लिया …

सभी फोटो मेरी खींची, मेरी पर्सनल फोटो हैं…


सुबह बगीचे में टहलते हुए  खींची हुवी तस्वीरोंकुछ एक ये   - १७ जुलाई २०१२

१)
                   
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                                                       गिल्लू तू रोज आना …



२)
                  
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                                                     गमले पर फुदकती चिड़िया ….



३)
                   
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                                       आँगन में दौड रही थी .. केमरे ने स्थिर कर दिया




४)
                     
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                                  जब तक हरियाली पर नंगे पाँव नहीं टहला तो आनन्द कहाँ .
                                                      अब वह हरी घास पर टहल रही है …




५)
                   
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                                                लेंटाना  के जंगली फूल मुस्कुराने लगे ..



६ )
                   
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नेवले का यह परिवार - बच्चा दीवार पर आया ही नहीं …


७)

                    
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                                      बाबू जी धीमे चलना, कांच भरी राहे, ज़रा संभलना


८)                                         

                
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                                   थोडा सुस्ता लूँ ? अपनी फोटो खिंचवा लूँ ?


९)
                      
             
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                                               हम भी खिल उठे है आपके लिए


१०-)

              
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                                 ओंस की बूंदे पत्तों पे छलके, पंखुडियां सजी हैं गुलाबी रंग मलके
                                             खिलने लगी है धूप हल्के हल्के 
                                 



११ )
              
              
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                                             पेड़ों के पीछे, दूब का हरा गाँव
                                             काली चिड़िया लगाए शिकारी दांव


१२ )
                
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जहां वो थी वहीं मैं हूँ
                                       बचा हुवा कुछ हो, देख रहा हूँ |



१३ )
                
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छुपन छुपाई
                                मैंने खुद को छुपाया है,
                                आपकी आँखों के आगे हूँ,
                                फिर भी खुद को ओझल बनाया है |




                 
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                                          खिलते हैं गुल यहाँ खिल के बिखरने को …




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                                             अच्छा तो हम चलते हैं -- बाय बाय
                                          
                                                                                                        

                      डॉ नूतन गैरोला -
              फोटो - जुलाई १७ २०१२ ७:१५ से ७:४५ AM
              पोस्ट - जुलाई १८ २०१२ १:१५ am 


  

Wednesday, July 4, 2012

बुलबुला हुआ मन - नूतन



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  सतह पर पानी के
  छमछम का शोर कर
  थिरकती बूंद
  अपनी थाप से
  पानी के गीत गाती है जब|
  छिछला पानी
  आह्लादित हो कर
  मोती सा हो जाता है तब|


भूल कर अपनी हदों को
छोड़ देता है सतह को
बुलबुला हो जाता है तब
अपने होने के अहसास में
फूलता है
और फूल कर फूट जाता है
क्षणभर में तब|


जबकि यह महज़ एक खेल है
थिरकती बूंदों का
पानी की अठखेलियों का |

 
  वैसे ही जैसे 
  प्रशंसाओं की मरीचिका से भ्रमित
  मिथ्या के भंवर में
  मनमेघ विस्मृत सा
  बरसता नहीं 
  फूलता है बुलबुले सा
  और टूट जाता है जब|
 



  ------ डॉ नूतन गैरोला  .. ४ जुलाई २०१२
 







Saturday, May 26, 2012

तुमसे आखिरी विनती - डॉ नूतन गैरोला

 

            

देखो न …..अभी मुझमे साँसों का आना जाना चल रहा है……जिंदगी के जैसे अभी कुछ लम्हें बचे हुवे है ….. आस का पंछी अभी तक पिंजरे में ठहरा  है …. सुबह पर अब सांझ का पहरा है …. और सांझ की इस बेला पर याद आने लगीं  है ..वो धुंधली परछाइयाँ  ....जब हम संग संग रोये थे…. और इक दूजे के पौंछ आंसू  खिलखिला कर हँस दिए थे .. साथ था न तुम्हारा मेरा, तो मलाल किस गम का … लेकिन विधाता को क्या मंजूर था ..छोड़ दी थी डोर उसने मेरी जिंदगी की पतंग की .. तुमसे दूर किसी और आसमां पर जा कर फडफडाती रही जिंदगी .. हवाओं में लहराती रही … बहती रही उधर जिधर बहाती रही …क्षितिज पर चटख रंगों वाली सुनहली  अकेली पतंग ..  कई हाथों को लुभाती रही … इतर हाथों से फिसलती रही ....डगमगाती रही, पर बढती रही .... तब तक जब तक वह हवाओं की  प्रचंडता से टूट कर छिन्न भिन्न न हो जाये या कि बारिश में गल कर टपक ना जाये .. देखो न सिन्दूरी सांझ भी ढलने को है और रौशनी भी गुम होने को है बस तुमसे आखिरी बात … 

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शाम ढल रही है

पिंजरे में पंछी व्याकुल है
लौ भभक के जल रही है|
सागर पर लहरे ढह रही है
और
रात दस्तक दे रही है
पर अभी
उजाले का धुंधलका बाकी है
तेरे इंतजारी में रौशनी ठहरी सी है
तुझे रौशनी की किरणें छू जाएँ
तू आ जा |

….…डॉ नूतन गैरोला 

Sunday, May 13, 2012

ऐसा भी पहाड




              मेरी माँ जैसे हिमालय
              जो कल भी था
              आज भी है
              और सदा रहेगा |
              और मैं हिमालय की बेटी  ||…. नूतन     
  
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                                    जिंदगी में बेहद कडुवे घूंट के साथ जीना, बस एक चलती हुवी लाश बन कर अपनी ही जिंदगी को ढोना बस ऐसा ही अहसास रहा माँ के बिना .. जिस तरह माँ अचानक छोड़ कर चली गयी किसी के गले नहीं उतरा .. बहुत मजबूत इरादों वाली मेरी माँ ने अपने बचपन में बेहद कड़े संघर्षपूर्ण पहाड़ी जीवन को बहुत हिम्मत से निभाया | उनके पिता जी का स्वर्गवास जब वह शायद ढाई साल की थी तब हो गया था| माँ विलक्षण बुद्धि की बेहद प्रतिभाशाली थीं किन्तु पढ़ने का मौका नहीं मिला बड़े भाई की किताब से रात को पढ़ती थी| दिन में खेती और घास काटने पहाड़ की कठिन धार में जाती| ऊँचे ऊँचे पहाड और गदेरों (नालों) को पार करती| सूखे पेड़ों की लकड़ी एकत्र करती| तब घर में खाने की आग का इंतजाम होता| नानी की तबियत भी कुछ खराब रहने लगी थी| मामा जी भी पहाड के सूखे खेतों में अपनी जीवन उर्जा लगा रहे थे| नानी ने गाय पाली थी एक दो बैल खेती के लिए|  माँ घास काटते हुवे गाने गाती और सहेलियों के साथ बतियाती | माँ बच्चों में शैतान थी लेकिन कार्य के प्रति बेहद गंभीर रहती |
                                        एक बार जोशीमठ से ऊपर  बेहद ऊँचे और गाँव से बहुत बहुत दूर उस पहाड़ में गदेरों को पार करते हुवे माँ और उनकी सहेलियों की टोली गौन्ख के भीषण घनघोर जंगल में पहुचे | तब माँ की उम्र १२ साल की रही होगी | वहाँ लकड़ी काटते काटते रात होने लगी और तभी एक गिरे पेड़ के पीछे उडियार ( दीवार पर गहरी गुफा जैसी जगह ) पर एक आदमी की लाश दिखी थी| साथ की सहेलियां  बेहद डर गईं थी और और एक लड़की को चक्कर आये किन्तु माँ ने तभी भी  मन मजबूत कर सोचा था कि अगर हम डर गए तो आज रात घर नहीं पहुँच पायेंगें |माँ ने अपनी सहेलियों को होसला बढाया था और जल्दी जल्दी लकडियों को बाँध अपनी टोली को चलने को कहा …
                            रात घिर आई थी जंगल में उल्लू कीड़े और जानवरों की आवाज गूंजने लगी| पैर तेजी से रखो तो पहाड़ की ढलाऊ पगडण्डी से फिसल कर जाने कितनी गहराई में जा गिर जाने का डर | अपना और अपनी पीठ पर बंधी लकडियों का अपने भय से संतुलन बनाते हुवे ढलान पर तेजी से उतर रहे थे किन्तु अँधेरा बहुत ज्यादा था . रास्ते  में वहाँ पर गौन्ख गदेरा आ गया | और वहाँ पर भूतों के रोने की आवाजें गूंज रही थी सभी सहेलियां अब घर जाएँ तो जाएँ कैसे? कोई भी आगे बढ़ने को तैयार ना थी .. माँ ने कहा भूतवूत कुछ नहीं होता मैं आगे जाउंगी तुम मेरे पीछे आना | माँ आगे चल दी और सहेलियां उनसे चिपक कर उनके पीछे पीछे किन्तु गदेरा पार करते करते पीछे वाली लड़की रोने लगी कि हमें लग रहा है कि पीछे से भूत आ जाएगा तब माँ ने उन्हें पीछे से जा कर सहारा दिया | छोटी तो वो भी थी पर बेहद निडर | रात हो गयी थी गाँव वाले डर  गए कि बच्चे कहाँ गए लेकिन बच्चे डर कर ना तो कोई आगे रहना चाहता था ना कोई पीछे| डर कर सबकी घिग्घी बंधी हुवी थी|  माँ ने सबको साथ साथ आने के लिए कहा और खुद उन रास्तों पर जहां हर वक़्त बाघ और भालू का डर रहता था, अकेले दौड़ते हुवे पहाड़ी ढलान  पर करीब  दो ढाई किलोमीटर नीचे मारवाड़ी के पास सिंगधार अपने गाँव पहुची और सबको बताया कि वे सब कहाँ है फिर गाँव वाले मसाल ले कर माँ की उन सहेलियों को लेने चल पड़े जिसकी अगवानी फिर माँ ने बेहद थक जाने के बाद भी की …उनकी बहादूरी और निडरता के आगे सबने सर झुकाया | मैंने भी बचपन से यही पाया कि माँ अपनी जान की परवाह किये बिना सदा अन्याय के खिलाफ आगे आती ..जहां सड़क पर कुछ लोंग किसी लड़के को जानलेवा ढंग से पीट रहे होते ..वहाँ माँ कुछ ना सही अपने हाथ का छाता लिए उसकी रक्षा के लिए आगे आ जाती कि किसी का बेटा आहत हो गया तो| वो बुजदिली से तमाशा देखने वालों को आगे बढने के लिए कहती |…..

                      उनका व्याह चौदह वर्ष की उम्र में हो गया और वह एक पहाड़ी गाँव से दुसरे पहाड़ी गाँव में आ गयी | माँ का नाम रामेश्वरी होने के बावजूद उनको  घर मायके  में प्यार से रामी कहते थे | बाद में सरकारी कागजों में उनका नाम रमा लिखा गया और इसी नाम से उन्हें जाना गया |

………….आगे क्रमश


Monday, April 30, 2012

उसकी ख़ामोशी के पीछे - नूतन


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सुंदरता के
स्निग्ध गालों के पीछे,
रेशमी बालों के नीचे ,
मदभरी आँखों की
हसीन झिलमिलाहट के अंदर….

दिल की जमीन पर -
खाई खंदक और
कितनी ही गहरी दरारें |
दरारों की भीतर
टीसते रिसते  बहते  हैं आंसू,
पर टपकते नहीं जो आँखों से |

कहीं पवित्रता की स्मिता का सबब
या कहीं मंडी में बिकती देह की मजबूरियां…
अस्वीकार कर अनसुना करती है उस  आवाज को
जो कशिश भरती लुभाती है  उसे
और अपने ही दिल को तोड़ कर बार बार
खामोश रहती है सुंदरता ||   ……..

Monday, April 16, 2012

आधुनिक ओस्वित्ज़ केम्प - डॉ नूतन गैरोला


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अक्सर अस्पताल मुझे किसी
आधुनिक ओस्वित्ज़ केम्प  से कम नहीं लगते
जिसके प्रांगण में गूंजती है आवाजें करहाने की|
जहां रेल में भर कर जोरजबरदस्ती कर लोग लाये नहीं जाते
बल्कि आते है लोग खुद बैठ कार टेक्सी इक्का तांगे रिक्शे में |
नाजी से कर्मी जुटे रहते है पुरजोर कडा अनुशासन बनाने में
और आये हुवे लोगो को भर्ती कर दिया जाता है मरीज का नाम दे कर]
उनके कपडे तुरंत बदल दिए जाते है
कैदी से कुछ कपड़ों के बदले
कुछ के पार्टप्रीपरेसन के नाम पर
बाल हटा दिए जाते हैं
कुछ महिलाओं की नसों द्वारा दवा चलाने के लिए 
चूड़ियाँ तोड़ दी जाती हैं
और रिश्तेदारों को दूर बाहर कर दिया जाता है
समय मिलने का फिक्स कर के|
थमा दिया जाता है एक कार्ड हाथ में
कि सिर्फ कार्डधारी मिल सकते है उक्त  फिक्स सिमित समय में
वह भी मुह में ताला लगा कर|


यहाँ गैस चेंबर तो नहीं होते है
पर चेंबर जैसे होते है- वार्ड, सी सीयू या आई सी यू
और एक अदद  ओपरेसन कक्ष|
उन पीड़ित मरीजों को अपनों से दूर रखने को
एक जल्लाद सा चेहरा लिए
निष्ठुर गेटमेन मिलने में रुकावट अड़चन सा
यमराज का जैसे द्वारपाल सा| 
कुछ काम का बहाना करते लोग
अंदर जाने को तरसते लोग
अपने मरीज से मिलने को व्याकुल लोग
गिडगिडाते हाथ जोड़ते लोग
वह निष्ठुर अपनी वर्दी का रोब दिखाता 
निरीह लोगो को दूर भगाता
आँख दिखाता
ड्यूटी पे डटा गेटमेन
और अपने ही आंसूओं को  रोकते लोग|


सुबह डॉक्टर के राउंड का वक़्त
कोइ नाजी अफसर जैसे आता हो केम्प में
वार्ड में मच जाती है अफरातफरी
तीमारदार भाग रहे छुप रहे होते है
और आया नर्स वार्डबॉय  जमदार
चिल्ला रहे होते है
भागो निकलो वार्ड करो खाली
डॉक्टर आ रहा है राउंड पर
निकलो भीड़ सारी
एक मरीज का नवजात शिशु
रो रहा होता है जोर से
छीन कर गोद से
भेज दिया जाता है बाहर,
पिछले मैदान वाले डोर से|

फिर चलता है दौर
सुइयों का, कैंचियो का, पट्टियों का
बड़ी क्रूरता से बेंधी जाती है सुईयां
खींचा जाता है जिस्मानी खून
जांच के लिए
धकेल दी जाती है दवा जिस्म में
नसों से, मांस से|
चीर फाड़ और पट्टियाँ
पट्टियाँ खींचते ही चीखते हैं लोग
कस कर पकड़ लिया जाता है उनका हाथ
और कर लिया जाता है मुह बंद
फिर तीखी जलती दवाएं,
की जाती हैं  घावों में प्रवाहित|
दुनियां भर की महामारियां
क्रंदन, रुदन, सिसकारिया
गूंजती है इस आधुनिक औस्विज़ केम्प में

मगर मकसद में  निहित रहा बुनियादी अंतर
ऑस्च्वित्ज़ केम्प में जान लेना
और इस आधुनिक औस्वित्ज़ केम्प में जान फूंकना
इस लिए मैंने क्रूरता से नफरत करके भी
आधुनिक औस्वित्ज़ केम्प की कमान उठाई है
पीड़ितों की पीड़ा  मिटाने के लिए स्नेहिल आवाज लगाईं है |
………डॉ नूतन गैरोला  .. १६/४ /२०१२ .. ११:४५ 

 

 

Sunday, April 8, 2012

तुम्हारा विस्तार - नूतन


 मन नहीं मानता कि तुझ बिन जी गए हम
आँख भर आई जब पिछले रास्ते देखे …… माँ

 आज माँ की पुण्यतिथि पर

माँ के बिना मैंने जीने की कल्पना नहीं की थी … और उनके बिना कैसे जी सकुंगी यह सोच भी मुझे डरा देता था …. जाने क्यों माँ बीमार ना होते हुवे भी अचानक एक ही दिन के पेट दर्द में चली गयीं … जबकि मैं उनके हाथ का सिरहाना बना के सोया करती थी… खूब गीत गाये थे हमने उस रात को जिसके बाद पेट में एक अजीब दर्द के साथ माँ ने हमें छोड़ दिया था ..आखिरी गाना जो माँ ने गाया था …वो था ..
मन तडपत हरी दर्शन को आज” बेजू बावरा का..
और माँ ने मदर इण्डिया के गीत भी गाये थे ..उनमे एक था - नगरी नगरी द्वारे द्वारे ढूंढू रे सावरिया, पिया पिया रटते मैं तो हो गयी रे बाव्रियां …..  उनकी पसंद पर मैंने मुकेश के कुछ गाने गाये थे उस रात … और एक गाना झिलमिल सितारों का आँगन होगा रिमझिम बरसता सावन होगा  यह हम दोनों ने गाया था ….एक गाना और था जो हमने खूब तान चढ़ा के गाया था ..नागिन फिल्म का..

ऊँची नीची दुनिया की दीवारे सैंया तोड़ के
मैं आई रे तेरे लिए सारा जग छोड़ के

              पर माँ ने जाने क्यों उस से एक दिन पहले मुझे कहा था …” बबली तू बहुत सीधी है, तू जानती नहीं जीवन मृत्यु क्या होता है|    मैंने कहा - मै जान कर भी क्या कर सकती हूँ … मुझे नहीं जानना|
माँ बोली थी - देख कल मै नहीं रहूंगी इस दुनियां में ..तुझे बहुत कुछ समझाना है ..बताना है ,,( शायद उन्होंने कुछ समझा हो अपने महाप्रयाण के बारे में … आज सोचती हूँ वो घर की व्यवस्था या पिता जी के बारे में बताना चाहती थी ..लेकिन मैं अनजान ) … मैंने कहा तुझे क्या  हो रहा है जो ऐसी बातें कर रही है ..मुझे नहीं सुनना ..क्या तुम चाहती हो कि मैं आज ही रो जाऊं ( मेरी मति क्यों मारी गयी थी उस रोज मैं इतनी उदंडी और जिद्दी हो गयी थी जो मैंने सुना  नहीं, शायद कार्यभार ज्यादा था मैं थक कर नर्सिंगहोम से आई थी -  जबकि मैं तो एक एक बात सुनती और शेयर करती थी माँ से फिर उस दिन मुझे ऐसा क्या हुवा था जो मैंने कुछ नहीं सूना ) … वह फिर बोली थी …सुन ले बाद में मत कहना कि माँ उस दिन कुछ कहना चाहती थी जो मैंने नहीं सुनालेकिन खबरदार मैं दुनिया छोड़ कर चली भी गयी तो  रोना मत, आत्मा को कष्ट होता है, और जो दुनिया में है उसे जीना होता है, तुम्हारे बच्चे है उनके लिए  हँसो खेलो ..हमने अपना कर्तव्य पूरा किया …लेकिन वो जो कहना चाहती थी वो  मैंने नहीं सुना …. बस तीसरे दिन माँ बिन बात के पेट दर्द बता कर चली गयी और जाते जाते कहती गयी कि मुझे जरा सहारे से उठाओ …मैं तुम लोगो के लिए खाना बना देती हूँ … सब्जी ना भी बना पायी तो सलाद खा लेना ..पर भूखे मत रहना … माँ बहुत ही care taking थी और मन से मजबूत उनकी कितनी ज्यादा तबियत खराब रही होगी जो वो दुनियाँ छोड़ कर चली गयीं पर मैं उनकी पीड़ा नहीं समझ सकी और वो भी कराही नहीं … जब उन्होंने शरीर छोड़ा हम रो रहे थे लेकिन जब माँ के चेहरे पर नजर गयी वह इतनी शांत और मुस्कुरा रही थी … और मुस्कुराते हुवे ही उनके ओज पूर्ण चेहरे ने हमें अपने जाने के बाद भी मुस्कुराने का सबक दिया….. लेकिन मेरे दिल में नस्तर की तरह आज भी वह बात चुभती है जब माँ की बात मैंने सुनी नहीं और वह कह रही थी बाद में मत कहना कि मैंने उनकी बात नहीं सुनी … और सच में आज मेरी जुबान पर यही बात रह गयी कि उस दिन मैंने उनकी बात नहीं सुनी …
अब सोचती हूँ जीते जी हम अपनों की बात नहीं सुनते बाद में पछतावे के अलावा कुछ भी नहीं होता |  अगर कोई बीमार आदमी मृत्यु सैया पर भी कुछ कहना चाहता है तो उसके अपने कहते है कि तुम्हें कुछ नहीं होने वाला और उसकी बात को सुना नहीं जाता ….. मेरा मानना है कि हमें उनकी बात भी पूरी तरह से सुननी चाहिए …. बाद में उसकी कोई गुंजाइश नहीं होती… पछता कर भी कुछ नहीं मिलता ..

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फूलों की कोमलता

चाँद की शीतलता

सूरज की रौशनी

दूध  की सफेदी

सितारों की आँखमिचौली 

श्लोको का आध्यात्म

वचनों  की प्रतिबद्धता

पवित्र मंदिर में रमा देवत्व

पानी सी पारदर्शी घुलनशीलता 

शब्दों में बसी शहद की मिठास

संगीत की लय

प्यार का रेशमी अहसास

पूजा की घंटियों की आवाज

धरती सा विस्तार

आकाश सा अनंत असीम प्यार

समीर में बसा वेग

ब्रह्मांड की ऊर्जा

साधुवों का तेज

नदी सी निर्मलता

पेड़ की छाँव

मेरा गाँव

दादी चाची सखी का भाव     

सब तुझसे ही  था माँ

तेरे  आँचल की छाँव तले

सब मुझे मिलता था ||

 

अब तुम नहीं हो

न ही वो आँचल है  सर पर मेरे

लेकिन

फूल. चाँद सूरज सितारों में

वचन, शब्द, संगीत में

श्लोकों, पूजा, साधूओं में

धरती आकाश ब्रह्मांड में

भोर दिवस निशा गोधुली में

नदी पहाड़ पेड़ की छाँव में

शहर कस्बे गाँव  में

दादी नानी सखी बहन में

दूध शहद पानी में

पंछी मछली हर प्राणी में

जिधर भी नजर घुमाती हूँ

सब में तुम्हें ही पाती हूँ

तूमने  सबमे अपना विस्तार कर लिया है

और इस विस्तार में मुझे ऐसे घेर लिया है  

जैसे मुझे समेट लिया हो अपने आलिंगन में

मेरे बचपन को फिर से अपनी गोद में भर लिया हो

पहले तुम में मेरी सारी दुनियां थी माँ

अब मेरी सारी दुनिया में तुम ही हो माँ यहाँ ,

मुझे अपने घेरे में घेरे हुवे

अकेली कहीं से भी नहीं  मैं |……… नूतन

Friday, March 30, 2012

चौकीदार



 

                          707696-Rothenburg_Square_at_night_Rothenburg_ob_der_Tauber 
                                                                                                                                                              
                                     चौकीदार
 
चौकीदार
उनींदी आँखों से
रोज की तरह
दिन की पार्ट-टाइम नौकरी के बाद
रात के पिछले पहर
सर्दी में ठिठुरता
सुनसान सड़क पर
बंद खिड़की दरवाजों के
रेशमी पर्दों के पीछे
नरम गरम बिस्तर पर
अपने को सोये पाता है |
घबरा जाता है |
खुद को नोच कर जगाता है|
नींद से पस्त थकी तनी नसों में
दमख़म भर कर 
एक सीटी बजाता है
जोर से चिल्लाता है
सबको सुनाता है
जाअ्अ्अ्गते  रहोअ्अ् |
जैसे  खुद को दे रहा हो नसीहत
चेता रहा हो  खुद को
अगर जिंदगी की जंग जीतनी हो तो  
जागते रहो | ….     नूतन     २९ / ३ /२०१२
 

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