Wednesday, April 20, 2011

मन की कैद - डॉ नूतन गैरोला


     मन की कैद

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एक अन्तविहीन असीम फैलाव..
आसमान से दूर अंतरिक्ष की गहरी ऊँचाइयों में,
सहस्त्र समुद्र से ऊँची अथाह गहराइयों में,
हर रेखा के अंदर और कितनी ही सीमाओं से बाहर
मन में उभरते असंख्य विचार|
विश्लेषण करता जोड़ता, नापता, काटता

स्वीकार करता या करता विद्रोह| 
रंगहीन या इन्द्रधनुष में चमकते रंग समूह
या फिर मिलते रंगों से बना श्वेत प्रकाश
हर कोने में हजारों प्रकाशवर्ष से दूर
या खुद के ही मन के अंदर
भूत, भविष्य, वर्तमान में विचरता मन|
बनाता अक्षरों का अद्भुत संसार,
और इस जिज्ञासू घुमक्कड़ को
एक ब्लैकहोल से खींच जकड लिया जाता है|
जहाँ उसका असीम फैला संसार समा कर सिकुड जाता है
और वह कैद कर लिया जाता है
एक छोटी सी दवा/ नींद की गोली में|

टेबलेट

 

डॉ नूतन गैरोला २०-४-२०११       

Friday, April 8, 2011

माँ और सपने- माँ की चौथी पुण्यतिथि पर

आज माँ की पुण्यतिथि है| वात्सल्य, दया, प्रेम  की मूर्ति माँ उतनी ही कर्तव्यपरायण और कर्मठ रहीं जितनी परोपकारी | वह जितनी अच्छी पत्नी थी, उतनी ही प्यारी माँ थीं| माँ घर की ही नहीं आसपास के बच्चों को भी बहुत प्रेम करती थी, नेक सलाह देती थी और बच्चे भी माँ का सम्मान करते और उनके कहने पर पढाई कर आगे बढ़ने की सोचते| वह सबका भला चाहतीं और सबको प्रोत्साहित करतीं | एक बात और वह कभी अन्याय होते नहीं देख सकती थी इसलिए वो न्याय के लिए, किसी निरीह की मदद के लिए अकेले ही आगे चली जातीं थी चाहे कोई उनका साथ दे या ना दे| उन्होंने हमें हमेशा ये शिक्षा दी के जितना भी हो सके सबका भला करो, इसमें तुम्हारा भी सदा भला होगा| उन्होंने हमें बहुत लाड से पाला और हमारी भलाई के लिए कड़क हो जाती थी वो, उन्हें फूलों से बहुत प्यार था.. तरकारी के अलावा या उससे ज्यादा वो बगीचे में फूलों को उगातीं थीं  … - जिस समय मैं यह लिख रही हूँ आज से  ४ साल पहले इसी समय माँ न चाहते हुवे भी हमें छोड़ गयी थी - उनकी कमी से मन में निर्वात हो गया है - वो जगह कभी नहीं भर सकती जो स्थान माँ का था| माँ के वियोग में मन बहुत तड़पा, तब चाहा  माँ कभी सपने में मिले किन्तु माँ कभी सपने में दिखाई नहीं दी.. तब लगा कि क्या माँ के प्रति मैंने अपने कर्तव्यों में वफ़ादारी न की, कहीं कोई गलती हुवी क्या जो माँ सपने में भी नहीं आई|
                         

                                                   माँ और मंदिर
                       

फिर ठीक एक माह के बाद माँ ने सपने में आ कर मेरा हाथ थामा, बहुत प्यार से ले गयी और एक पूजास्थली दिखाया जहाँ एक बड़ा दीया था और कहा - चिंता नहीं करना तुम, मेरी यहाँ पूजा होती है .. और फिर मैंने खुद को माँ के साथ एक रिक्शे में बैठा देखा , जिसको एक लड़का चला रहा था, और सोया हुवा था, माँ मुझे  एक पहाड़ी ढाल पर ले गयीं, जहाँ खेतों के पार दूर पहाड़ पर एक सफ़ेद मंदिर दिखाई दे  रहा था| माँ ने बताया बबली ( मेरे घर का नाम ) यह मेरा घर है| मैंने वहाँ जाने के लिए अपने कदम खेत पर रखे, लेकिन कदम टस से मस नहीं हुवे, तब माँ बोली - वहाँ जाने के लिए कदम जमीन से ऊपर हवा में पड़ने चाहिए| तब मैंने कोशिश की लेकिन मेरे कदम जमीन पर ही पड़ते थे और मैं उस पार उस मंदिर में ना जा पायी जहाँ माँ का निवास था| फिर माँ ने मेरे गाल पर थप्पड़ मारा और कहा उठ, फिर नहीं कहना माँ नहीं आई - और उस थप्पड़ से मेरी नींद खुल गयी और मुझे यह अहसास हुवा कि माँ अभी अभी मेरे साथ थी और वह सपना भी याद रहा …


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और दूसरा सपना लगभग एक महीने बाद दिखा था जिसमें मैं माँ के साथ एक रेलयात्रा पर हूँ उसका विवरण इस कविता में हैं |
                 
                                          एक रेलगाड़ी और हम
                           
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मैंने देखा था इक सपना
एक रेलगाड़ी और हम
पिताजी टिकट ले कर आते हुवे
और लोग स्टेशन का पता पूछते हुवे 
इतने  में रेल चल पड़ी थी
खड़े रह गए थे वो(पिता जी ) अकेले स्टेशन में
बेहद घबराये छटपटाये थे 
और याद नहीं घर के लोग किधर बिखर गए थे
रेलगाडी दौड़ रही थी सिटी बजाती
और उस डब्बे में थे तुम और मैं
और कुछ भीड़ सी औरतों की, मर्दों की,
भजन गाती|
कुछ अनचाहे चेहरे, क्रूर से, मेरे पास से गुजरे थे
और तुम ने समेट लिया था मुझे,
छुपा लिया था मुझको  खुद के आगोश में
स्नेह भरे उस आलिंगन में फेर लिया था मेरे सर पे हाथ
कितना  भा रहा था मुझको तेरा मेरा साथ
भीग रहा था मन और तन, झूम स्नेह की बरखा आई
इतने  में एक आवाज तुम्हारी पगी प्रेम में  आई
जो बोला  तुमने भी न  था, न मैंने कानों से सुनी
वो आवाज मेरी आँखों ने मन-मस्तिष्क से पढ़ी  
तुमने कहा मजबूत बनों खुद, ये साथ न रहे कल तो?
और तुम्हारे चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच आयीं थी |
जाने क्यों वक़्त रेल की गति से तेज भागता जाने कहाँ रिस गया
जाने क्यों मैं नीचे की बर्थ पे बैठी रही
और तुम ऊपर की बर्थ में कुछ परेशान सोच में |
रेल धीरे.. धीरे... धीरे.... और रुकने लगी
साथ भजन की आवाजे तेज तेज तेजतर गूंजने लगी
जाने क्यों में रेल से नीचे उतर आयी कानों में लिए भजन की आवाज
रेल का धुवां और सिटी की आवाज जब दूर से कानों पे आई
तो जाना मैं अकेले स्टेशन में थी
और वह रेल तुम्हें ले कर द्रुत गति से चल दी थी आगे कहाँ, जाने किस जहां
तुम्हारे वियोग में मैं हाथ मलती खड़ी बहुत पछताई
और टूट गया था वो सपना, था वो कुछ पल का साथ
मैं भीगी थी पसीने से और बीत रही थी रात
आँसू के सैलाब ने मुझको घेरा था
मैंने जाना सब कुछ देखा जैसा, वैसा ही तो था
क्यों पिताजी की आँखों में सदा रहती थी नमी
हमारी खुशियों की खातिर सदा मुस्कुरा रहे थे वो
जब कि उनको भी बेहद कचोट रही थी कमी...
तब चीख के मैंने उन रात के सन्नाटों को पुकारा था...
उस से पूछा था
तुम कहीं भी फ़ैल जाते हो एक सुनसान कमरे से एक भीड़ में
अँधेरे से उजाले में, धरती-पाताल से आकाश और दूर शून्य में
और वो तारा टिमटिमा रहा है जहाँ, वहाँ भी तो तुम रहते हो
फिर तुमने देखा तो होगा उनको .. बोलो बोलो मेरी माँ है कहाँ ..
सन्नाटा भी था मौन और फिर हवा से कुछ पत्तों के गिरने की आवाज थी..
जैसे कह रहें हों  कि जो आता है जग में वो एक दिन मिट्टी में मिल जाता है..
तुम मिट्टी में मिल गयी ये स्वीकार नहीं मुझको
फिर वो रेल कहाँ ले गयी तुमको
किस परालोकिक संसार में
पुकारती हूँ तुमको फिर भी इस दैहिक संसार में ...
बोलो मेरी प्यारी माँ तुम कहाँ, तुम कहाँ 
इंतजारी है मुझको अब उस रेल की
तुमसे दो घडी का नहीं, जन्म जन्म के मेल की ..


                                                    डॉ नूतन गैरोला

                                                     तीन चित्र

maan माँ

                      माँ ( श्रीमती रमा डिमरी ) पारंपरिक नथ पहने हुवे, मेरे साथ |



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                                                      माँ इक्कीस साल की

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                मैं ( छः महीने की) माँ की गोद में, साथ में पिता जी, दोनों बड़े भाईसाहब
                                       



                      माँ तुमको शत् शत् नमन


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                   माँ के चरणों में श्रद्धासुमन

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